आज चंद्रशेखरजी की जयंती है. ‘बागी बलिया’ के सपूत. अपनी राह गढ़ने और बनाने वाले जननेता. सीधे प्रधानमंत्री बननेवाले राजनेता. अपने प्रधानमंत्रित्व काल में देश को गंभीर चुनौतियों से निकालने वाले कुशल प्रशासक. आजीवन देसज चेतना के साथ रहने वाले जमीनी, सरोकारी नेता. देश में ‘युवा तुर्क’ के नाम से मशहूर. उन पर बात चलती है तो उनकी पहचान में ऐसी अनेक रेखाएं उभरती हैं. उनकी स्मृतियों को सादर नमन.
उप सभापति हरिवंश की कलम से..
वह देश के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक में जन्मे. साधारण परिवार में. न अंग्रेजी स्कूल में पढ़े, न विदेशों में शिक्षा पाई. आजीवन अपने लोगों से अपनी मातृभाषा भोजपुरी में बोलते-बतियाते. किसी तरह पढ़ाई की. 15-18 किलोमीटर पैदल चलकर आरंभिक शिक्षा पाई. समाजवाद की शिक्षा, जीवन के कटु अनुभवों-अभावों से सीखा. बागी बलिया का आत्मस्वाभिमान, जीवन का आजीवन मूल सत्व व स्वभाव रहा. भूखों रहे, रिश्तेदारों या परिचितों के घर खाने नहीं गये. अभावों में रहे, पैसा हुआ तो बलिया स्टेशन पर जाकर कुछ खा लिया, पार्टी का काम किया. शुरू में, वर्षों तक अपना और साथियों का बर्तन मांजा, एक ही कमरे में साथियों के साथ गुजारा किया, खाना मिला तो बना, या सब भूखे रहे. चना-चबेना पर. पर, उत्तरप्रदेश में आचार्य नरेंद्रदेव के दिये दायित्व को निभाया. लगभग एक दशक में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को सबसे मुख्य विपक्षी दल के रूप में खड़ा किया. पार्टी ने 1962 में सांसद बनाया. आते ही श्रम, अध्ययन और तैयारी से राज्यसभा में हिस्सेदारी की. छाप छोड़ी. तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को कई सवालों पर सीधे घेरा. इस देसज मिट्टी का, गांव की मिट्टी का संसद में अभूतपूर्व साहस, प्रतिभा और आत्मविश्वास दिखा. देश को आजाद हुए कुछ ही वर्ष हुए थे. शासन में आभिजात्य वर्ग का, इलिट क्लास का, प्रभु वर्ग का दबदबा था. उस वक्त खांटी देसज महौल से, गांधी के गंवई भारत से समाजवादी आदर्शों-सिद्धांतों की शिक्षा जीवन के अनुभव से पाकर धोती-कुरताधारी चंद्रशेखरजी ने आते ही संसद में अपनी विशिष्ट और देसज छाप छोड़ी.
इंदिराजी से पहली मुलाकात-संवाद
फिर पीएसपी से निष्कासित. फिर कांग्रेस में. वहां इंदिरा गांधी से पहली मुलाकात. उनका सवाल-जवाब. यह इंदिराजी और चंद्रशेखरजी के बीच पहली बातचीत थी. तब इंदिराजी प्रधानमंत्री नहीं थीं, वे लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल की सदस्य थीं, पर नेहरु परिवार के प्रभामंडल के कारण अलग शक्ति केंद्र थीं. दोनों के बीच बातचीत यों हुई.
इंदिरा गांधी: चंद्रशेखर, क्या आप कांग्रेस पार्टी को समाजवादी मानते हैं?
चंद्रशेखरः नहीं, मैं नहीं मानता कि कांग्रेस समाजवादी संस्था है, पर लोग ऐसा कहते हैं.
इंदिरा गांधीः फिर आप कांग्रेस में क्यों आए?
चंद्रशेखरः क्या आप सही उत्तर जानना चाहती हैं?
इंदिरा गांधीः हां, मैं यही चाहती हूं.
चंद्रशेखरः मैंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में 13 साल तक पूरी क्षमता और ईमानदारी से काम किया. दल को मैंने पूरी निष्ठा से समाजवाद के रास्ते पर ले जाने की कोशिश की, लेकिन काफी समय तक काम करने के बाद मुझे लगा कि वह संगठन ठिठक कर रह गया है. पार्टी कुंठित हो गई है, बढ़ती नहीं है. अब यहां कुछ होने वाला नहीं है. फिर मैंने सोचा कि कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है. इसी में चलकर देखें, कुछ करें.
इंदिरा गांधीः लेकिन यहां आने के बाद आप क्या करना चाहते हैं?
चंद्रशेखरः मैं कांग्रेस को सोशलिस्ट बनाने की कोशिश करुंगा.
इंदिरा गांधीः न बनी तो?
चंद्रशेखरः इसे तोड़ने का प्रयास करुंगा. क्योंकि यह जब तक टूटेगी नहीं, तब तक देश में कोई नई राजनीति नहीं आएगी. पहले तो मैं प्रयास यही करुंगा कि यह समाजवादी बने, पर यदि नहीं बनी, तो इसे तोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा.
इंदिरा गांधीः मैं आपसे सवाल पूछ रही हूं और आप मुझे इस तरह के उत्तर दे रहे हैं?
चंद्रशेखरः सवाल आप पूछ रही हैं, तो उत्तर तो आपको ही दूंगा.
इंदिरा गांधीः पार्टी तोड़ने से आपका क्या मतलब है, इससे क्या होगा?
चंद्रशेखरः देखिए, कांग्रेस बरगद का पेड़ हो गयी है. इसकी फैली छांव में कोई दूसरा पौधा विकसित नहीं होगा. इस बरगद के नीचे कोई पौधा पनप नहीं सकता, इसलिए जब तक यह पार्टी नहीं टूटेगी, कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होगा.
श्रीमती गांधी विस्मित-सी उन्हें देखती रह गईं. बाद में भी उन्होंने श्रीमती गांधी से सदा स्पष्ट बातें कीं. उनसे अपना मंतव्य कभी नहीं छिपाया. यह साहस चंद्रशेखरजी में ही था. उनका यह तेवर स्वाभाविक था. वह ‘बागी बलिया’ की धरती से थे. उस धरती से, जिसके त्याग, साहस, समर्पण, ज्ञान की कहानी से देश वाकिफ है. 1857 का विद्रोह हो, 1942 की क्रांति हो या आजादी की लड़ाई, बलिया ने अपना तेवर रखते हुए योगदान दिया. हजारीप्रसाद द्विवेदी, परशुराम चतुर्वेदी, भागवत शरण उपाध्याय, केदारनाथ सिंह जैसे यशस्वी साहित्यकारों-बौद्धिकों की धरती. मंगल पांडेय जैसे शूरवीर और जेपी जैसे जननेता की भूमि. चंद्रशेखरजी के जीवन में अपनी माटी-पानी, बागी बलिया की धरती का असर था.
कांग्रेस में बदलाव के वाहक
कांग्रेस में सामजिक, आर्थिक, वैचारिक कार्यक्रम का तुफान युवा तुर्कों ने जो खड़ा किया, उससे 69 में कांग्रेस बंटी. फिर 71 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, कोयले का राष्ट्रीयकरण हुआ. ‘गरीबी हटाओ’ का नारा निकला. 71 के चुनाव में इंदिराजी के बाद चुनाव प्रचार के लिए सबसे अधिक मांग चंद्रशेखरजी की थी. चुनाव में श्रीमती गांधी को भारी कामयाबी मिली. प्रस्ताव मिलने के बाद भी चंद्रशेखरजी सरकार में शामिल नहीं हुए. कुछ ही दिनों बाद पार्टी नेतृत्व को याद दिलाया कि ‘गरीबी हटाओ’ नारे के लिए हम ठोस कदम उठायें. 71 में कांग्रेस आलाकमान की इच्छा के खिलाफ वह कांग्रेस कार्यसमिति में, शिमला में चुने गये. माना गया कि सुभाष बाबू के बाद आलाकमान की इच्छा के विरूद्ध यह दूसरी विजय थी. वह कांग्रस वर्किंग कमिटी में वर्षों चुने सदस्य रहे. आलाकमान की इच्छा के विपरित.
राष्ट्रपति चुनाव: नीलम संजीव रेड्डी और बीबी गिरी
उनसे जुड़े अनेक प्रसंग हैं. एक प्रसंग है कि कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए अपना प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी को बनाया. उन्हीं दिनों बंगलोर में यह कहने का साहस सिर्फ चंद्रशेखरजी में था कि मैं अपना वोट श्री रेड्डी को नहीं दूंगा. अंतत: बीबी गिरी राष्ट्रपति बने. इस प्रकरण में चंद्रशेखरजी की भूमिका निर्णायक रही.
117 दिन के प्रधानमंत्री
जयप्रकाशजी का आंदोलन शुरू हुआ. आंदोलन के कुछ मुद्दों का अपनी पत्रिका ‘यंग इंडियन’ में लिखकर स्वागत किया. आपातकाल में जेल भेजे गये. तन्हाई में रखा गया. अंतत: 1990 में देश के प्रधानमंत्री बने. 117 दिन सत्ता में रहे. चुनाव की परिस्थितियों के कारण कुल 223 दिन प्रधानमंत्री रहें. उस दौरान पूर्व सरकारों से अनेक चुनौतियों की सौगात मिली. देश आर्थिक रूप से कंगाल होने के मुहाने पर था. आधे देश में कर्फ्यू था. पाकिस्तान में उग्रवाद था. कश्मीर की समस्या अलग थी. पंजाब का उग्रवाद अलग. असम, नॉर्थ-इस्ट अशांत था. तमिलनाडु में लिट्टे का भय था. देश संभाला. उनकी सरकार किन परिस्थितियों में गिरी, यह मुल्क जानता है. अचानक कांग्रेस को लगा कि चंद्रशेखरजी की छवि श्रेष्ठ प्रधानमंत्री की बन रही है, खासकर विदेशी मीडिया की प्रशंसा उनके लिए भारी पड़ी. लंदन के फाइनेंसियल टाइम्स ने उन्हें ‘असुविधाजनक सफल प्रधानमंत्री’ (एन अनकंफर्टेबुली सक्सेसफुल प्राइम मिनिस्टर) कहा. राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर हरियाणा के दो सिपाहियों से अपने खिलाफ जासूसी का आरोप लगाकर सरकार गिरा दी. चंद्रशेखरजी को कांग्रेस की इस बुद्धिमता पर आश्चर्य हुआ. उन्होंने अप्रत्याशित कदम उठाया और इस्तीफा दे दिया. राजीव गांधी हतप्रभ थे. उन्होंने उस दिन लोकसभा में संकेत मिलते ही हर मुमकिन कोशिश की थी कि चंद्रशेखर इस्तीफा न दें. फिर तुरंत शरद पवार को मुंबई से बुलाया और चंद्रशेखरजी के पास भेजा कि वह अपना इस्तीफा वापस लें. चंद्रशेखरजी का जवाब उनके व्यक्तित्व और राजनीतिक मान्यता के अनुकूल था, कहाः ‘वापस जाकर उन्हें (राजीव गांधी को) कहें कि चंद्रशेखर दिन में तीन बार अपना विचार नहीं बदलते. किसी कीमत पर सत्ता में बने रहने वाला इंसान मैं नहीं हूं. किसी चीज पर मैं एक बार फैसला करता हूं तो उसे पूरा करता हूं. (चंद्रशेखरजी की जीवनी से साभार)
चंद्रशेखरजी के ट्रस्ट और कुप्रचारों का सिलसिला
चंद्रशेखरजी मीडिया के निरंतर कुप्रचार के केंद्र में रहे. दशकों लांछित होते रहे कि पूरे देश में भारत यात्रा ट्रस्टों के माध्यम से उन्होंने कई हजार करोड़ की संपत्ति एकत्र की है. सार्वजनिक ट्रस्टों को निजी परिवारिक संपत्ति बना लिया है. चंद्रशेखरजी ने कभी इनका उत्तर नहीं दिया. कहते थे कि अगर मैं सही हूं, तो षड्यंत्रों के, कुचक्रों के या सुनियोजित ढंग से छवि धूमिल करने के प्रयासों का सच सामने आएगा. झूठ के बादल छटेंगे. ये कुप्रचार उन्हें कमजोर करने के लिए हो रहे थे. उनके न रहने के बाद देश ने जाना कि भारत यात्रा ट्रस्ट (जिसके केंद्र भारत के विभिन्न शहरों में बने) में अपने परिवार के कोई सदस्य नहीं है. सभी जगहों पर स्थानीय कार्यकर्ता या राष्ट्रीय नेता थे. हां, उनके गंभीर रूप से बीमार होने पर उनके द्वारा स्थापित अन्य दो-एक ट्रस्टों में परिवार के लोग घुस आए. पर आजीवन अपने परिवार के किसी व्यक्ति को न टिकट दिया, न राजनीति में उतारा. उनके न रहने पर उनके पुत्र नीरज शेखर समाजवादी पार्टी के टिकट पर लड़े, वह भी लोगों के राजनीतिक चंदे व आर्थिक सहयोग से. मृत्युशय्या पर थे, तब 19 मई 2006 को तत्कालीन प्रधानमंत्री के पास अपने राजनीतिक सहयोगी एच.एन. शर्मा को पत्र व प्रस्ताव देकर भेजा कि मैंने अपने जीवन में जो भी ट्रस्ट बनाए हैं, उसकी सारी संपदा पब्लिक प्रॉपर्टी के रूप में तब्दील कर दी जाए और सरकार उसका अधिग्रहण कर ले. उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी कि ये संस्थाएं या ट्रस्ट जनता से एकत्र पैसे से बने हैं, इसलिए उनके न रहने पर यह सब देश को ही वापस जाना चाहिए. चंद्रशेखरजी के समय जो लोग इन ट्रस्टों की देख-रेख कर रहे थे, आज भी वही व्यवस्था है. कहीं-कहीं पुराने लोग गुजर गए या जो बचे हैं, उनमें आपस में विवाद है. पर देश के किसी मीडिया घराने ने, जिन्होंने इन ट्रस्टों को चंद्रशेखरजी के जीते जी उनकी निजी जायदाद कहा, एक शब्द नहीं लिखा कि सच क्या था? इस तरह समाजवाद के सिद्धांतों को चंद्रशेखरजी ने जिया और जीवन में उतारा.
सिताबदियारा का मॉडल
जेपी से चंद्रशेखरजी का रिश्ता क्या था, यह अनेक किताबों में दर्ज है. न सिर्फ इमरजेंसी के दिनों में, बल्कि दोनों के बीच आत्मीय रिश्ता हमेशा बना रहा. जेपी अपने गांव आते, तो गांव के लोग कहते कि आपके एक बार कहने से गांव का कायाकल्प हो सकता है, पर आप कहीं, किसी से कहते ही नहीं. जेपी गांववालों से कहते कि हमने आजादी की लड़ाई देश के लिए लड़ी है. इस देश में करीब छह लाख गांव है. सबके विकास का सपना हमलागों ने देखा है. अपने गांव के लिए किसी से कहेंगे तो यह अच्छा भी नहीं लगेगा और न्यायसंगत भी नहीं. जेपी की बात गांववाले समझ गये थे और उनकी बातों से सहमत भी थे. पर, जब जेपी जीवन के आखिरी दिनों में पहुंचे तो उन्होंने चंद्रशेखरजी को कहा कि ‘चंद्रशेखर हमर गांव के देखिह.’ (चंद्रशेखर मेरे गांव को देखिएगा) जेपी के गुजर जाने के बाद चंद्रशेखरजी ने न सिर्फ गांव को देखा बल्कि जेपी की स्मृति में वहां बहुत काम किये. जेपी का मॉडल स्मृति न्यास बनाकर. उस गांव-इलाके को आवागमन के साधन से जोड़ा. इसके लिए चंद्रशेखरजी खुद लगे.
कैंसर की बीमारी और चिकित्सक का संस्मरण
30 सितंबर, 2003 को उनके हृदय का ऑपरेशन हुआ. लगभग एक साल बाद उन पर नियति का दूसरा प्रहार था. अगस्त 2004 में उन्हें कैंसर बीमारी का पता चला. इस प्रसंग को जानने के लिए उस समय उनके चिकित्सक रहे डॉक्टर महाजन से हमने संपर्क किया. लगभग पौने दो पेज में, अंग्रेजी में उन्होंने अपना संस्मरण भेजा. डॉक्टर महाजन का यह विवरण अत्यंत मार्मिक, संवेदनशील और चंद्रशेखरजी के असल व्यक्तित्व का निरूपण है. डॉ. महाजन लिखते हैं, ‘कैंसर’ होने की सूचना मिली तो सदमा लगा. तुरत स्मृति में उभरा, उनका लंबा कद, मजबूत कद-काठी, भीड़ में अकेले विशिष्ट पहचान रखने वाले. गांवों में फावड़ा चलाते, ईट उठाते तथा खूब शारीरिक श्रम करते उन्हें देखा था. पैदल चलने का तो इतिहास ही बना चुके थे. वे इस जानलेवा बीमारी के शिकार होंगे, उनकी सक्रियता के कारण कभी लगता नहीं था. पर जीवन, मृत्यु, सृष्टि और प्रकृति का रहस्य कौन जान सका है? लौ धीरे-धीरे बुझ रही थी. डॉ. महाजन लिखते हैं, जब जरूरत पड़ती थी, चंद्रशेखरजी हमारे ‘रेडियोलॉजी इमेजिंग सेंटर’ (Radiology Imaging Centre) में अपने टेस्ट या परीक्षण के लिए आते थे. अत्यंत गर्मजोशी से मिलते. बिल्कुल मित्रवत पेश आते. वह मेरे हौज खास इंक्लेव स्थित केंद्र में ‘लोअर बैक’ (कमर के नीचे) लुंबोस्क्रोल एम.आर.आई. के लिए आए. क्योंकि उन्हें कमर के निचले हिस्से में (लो बैक यानी कमर के आसपास या नीचे) कुछ समय से दर्द रहता था. हमने स्कैन करना शुरू किया. मैं, खुद ही मशीन के कंट्रोल पर बैठकर, निजी तौर पर यह स्कैनिंग कर रहा था. जैसे ही मैंने स्कैन शुरू किया, आरंभिक इमेज आने शुरू हो गए. मैंने जो कुछ देखा, उससे सदमे में था. स्पाइन (रीढ़ की हड्डी) की अनेक हड्डियों में कैंसर था. मैं बहुत निराश था. किसी तरह स्कैन पूरा किया. स्कैन के बाद जैसा हमेशा (कस्टमरी) होता, पूर्व प्रधानमंत्री मेरे दफ्तर में बैठकर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. मैं आऊं और रिपोर्ट के बारे में उन्हें बताऊं. पर मैं बहुत डिप्रेस (हतोत्साहित या उदास) था. उनके सामने जाना नहीं चाहता था. पर, जाना पड़ा. कमरे में घुसा और उन्होंने (चंद्रशेखर) पूछाः डॉक्टर साहब क्या निकला? मेरे पास बोलने के लिए शब्द नहीं थे. मैंने कहा, सर अभी शुरुआती इमेज आई है. हम इन्हें डिटेल में देखकर बता पाएंगे. पर, वह अत्यंत पर्सेप्टिव (जाननहार या अनुभवी) थे. चूंकि हमेशा स्कैन के बाद उन्हें मैं उनकी रिपोर्ट बताता था, शायद यह भी था कि मेरे चेहरे से मेरी चिंता और बेचैनी वह भांप चुके थे. उन्होंने कहा आप यहां बैठ जाइए और मुझे साफ-साफ बताइए कि क्या है? इस वाक्य में एक तरह का आग्रह, दबाव और आदेश (Persuation, Insistence and Command) था. उनके सामने बैठ गया. सीधे-सीधे उनकी आंखों में देखा. मेरे अंदर से एक आवाज आई कि मुझे सच कहना ही पड़ेगा. उन्हें मैं प्रतीक्षा में नहीं रख सकता था. इसलिए सीधे-सीधे मैं उनसे बोलाः सर, स्कैन मैंने देखा है. मुझे लगता है कि आपको कैंसर है. यह आपकी हड्डियों में फैल चुका है. मेरी इस बात पर उनकी प्रतिक्रिया ने मुझे स्तब्ध कर दिया. मैं, उन्हें इस तरह स्तब्ध और आहत कर देने वाली खबर दे रहा था. उन्होंने एक बार भी अपनी पलक नहीं झपकाई. बिल्कुल मर्दानगी से इस बात को उन्होंने लिया (लाइक ए रियल मैन). ऐसी स्थिति में अधिकतर लोग बिफर पड़ते हैं, टूट जाते हैं या ध्वस्त हो जाते हैं. पर, उन्होंने बिल्कुल निर्भीकता से इस खबर को सुना. मुझसे पूछा, कौन सा स्टेज है? मैंने कहाः जब हड्डियों में यह फैलता है, तो चौथा स्टेज है. फिर भी अत्यंत शांति, धैर्य और धीरज के साथ उन्होंने यह सूचना सुनी. मेरे कंधे पर थपकी लगाई. फिर वह कमरे से बाहर निकले, जहां उनकी कार उनकी प्रतीक्षा कर रही थी. पूरी बीमारी में वह उसी तरह निर्भीक, शांत और अंत तक सामान्य रहे.
जीवन का एक अफसोस
बीमारी के दौर में भी वह नाश्ते पर बुलाते थे. एक बार जन्मदिन पर बधाई देने गया. वह भोंड़सी के अपने आश्रम में थे. लोगों से घिरे. बीमारी शरीर पर अपनी छाप छोड़ चुकी थी. वहीं बैठा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का फोन आया. बातचीत में वही उल्लास, ओज और आत्मविश्वास. मुझसे कहा, आकर एक सप्ताह साथ रहो. कहा, जरूर आऊंगा. आना-जाना होता रहा. रहने की योजना बनाता, इसके पहले वह चले गए. यह अफसोस आजीवन रहेगा. उनकी जयंती पर उन्हें याद कर रहा हूं तो एक शेर याद आ रहा है. चंद्रशेखरजी को शेरो-शायरी, कविता, साहित्य के अनेकों उद्धरण जेहन में रहते थे. उनके आजीवन मित्र ओमप्रकाश श्रीवास्तव ने, कुछ ही वर्षों पहले एक शेर सुनाया था, जो चंद्रशेखरजी जीवन के अंतिम दिनों में गुनगुनाते थे-अकेला हूं तो क्या? आबाद कर देता हूं वीराना। बहुत रोयेगी शाम-ए-तन्हाई, मेरे जाने के बाद…उनके बारे में कहने को अनेक बातें हैं. फिलहाल इतना ही. राजनीति की इस साहसी धारा के विपरीत अकेले चलने का साहस रखनेवाले इस व्यक्ति को प्रणाम. जयंती पर श्रद्धांजलि. ये सारे प्रसंग, तथ्य उन पर मेरे द्वारा लिखे गये लेखों, संस्मरणों या उनकी जीवनी से लिये गये हैं, जो वर्षों पहले लिखे गये.
(लेखक राज्य सभा के उप सभापति हैं)