लखनऊ : केन्द्रीय सत्ता की चाबी और राजनीति का ताला जैसा उत्तर प्रदेश, चुनावी दंगल के करीब है। बिसात बिछाने और गठबंधन बनाने की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। ट्विटर से उलझन के बावजूद, ट्वीट के माध्यम से घात-प्रतिघात जारी है। सत्ता दल के अंदर मचे घमासान की हल्की-फुल्की धमक सुनाई दे रही है। मुख्य प्रतिपक्षी, समाजवादी पार्टी, मन ही मन गदगद है। उसका मानना है कि भाजपा की जनविरोधी सत्ता से उपजा जनाक्रोश, अंदर खाने गहरा है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने का इंतजार है और शायद इसी गुरूर में वह व्यापक विपक्षी एका की संभावना के लिए प्रयास करती नहीं दिखती। बहन जी तो कह ही चुकी हैं कि वक्त जरूरत के हिसाब से जाएंगी भाजपा के साथ। इस आशंका से बहुजन हितों के प्रति प्रतिबद्ध लोगों का एक धड़ा उनसे छिटक रहा है और समाजवादी उन्हें अपने करीब पा रहे हैं। इन्हीं उत्साही बातों से समाजवादी पार्टी आश्वस्त है लेकिन 13 प्रतिशत जाटव बिरादरी अभी भी मायावती के साथ है। अगर सपा ने अतिपिछड़ों की फिर उपेक्षा की तो बात बिगड़ेगी।
मुलायम से अलग हैं अखिलेश
मुलायम सिंह की एक खासियत यह थी कि वह, खांटी समाजवादी न होते हुए भी बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और विमर्शकारों से संपर्क साधे रखते थे। उन्हें तरजीह देते थे। लगातार दौरों और कार्यक्रमों में सुनने-सुनाने की प्रक्रिया में बहुत कुछ समझ लेते थे। दोस्तों के दोस्त बन, जमीनी यथार्थ पर पकड़ कायम रखते थे। अखिलेश यादव ने इस रास्ते को लगभग बंद कर दिया है। वह अपने कार्यकर्ताओं तक से संवाद कायम नहीं रखते। वह समाजवादी गोलबंदी में दलित, अतिपिछड़ों और मुसलमानों की अहम भूमिका को प्रमुखता से तरजीह नहीं देते। कुम्भ नहाने से लेकर परशुराम की मूर्तियों को जिलों में स्थापित करने में रुचि ज्यादा रखते हैं। उन्हें लगता है, भाजपा की नाकामियां, कोरोना की अव्यवस्था, लाशों की गंधाती जमीन, उनका रास्ता आसान कर देगी।
अखिलेश के पदापर्ण संग यदुवंशियों तक सिमटने लगी सपा
अखिलेश यादव का ऐसे समय में आगमन हुआ, जो मात्र 38 साल में मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंच गए। सरकार बनी और हाईवे पर दौड़ते ट्रकों पर यादव ट्रांसपोर्ट, यदुवंशी कैरियर, यादव रोड लाइन्स और यादव मोटर्स जैसे नाम प्रमुखता से दिखाई देने लगे। निजी वाहनों पर यदुवंशी नामों और पार्टी के झंडों की उपस्थिति, गैरकानूनी हूटरों के साथ, ठीक वैसी ही छवि प्रस्तुत कर रही थी, जैसे आज, कार के शीशों पर एंग्री हनुमान का चित्र या ब्राह्मण, राजपूत, गुज्जर आदि नामों से अपनी हनक दिखा रहे हैं। ऊपर से नीचे तक, उस अराजक माहौल में अतिपिछड़ों और दलितों की पुकार दबी रह गई। इस वर्ग के अधिकारियों की घोर उपेक्षा हुई और यादव अधिकारियों के गुट की सत्ता पर पकड़, सवर्णों की तरह आक्रामक दिखाई देने लगी। समाजवादी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता में बैठी भाजपा, दलितों और अतिपिछड़ों के वोट बैंक से ही सफलता पायी है। वह दलित-अतिपिछड़ों की हकमारी के बावजूद इनके नेताओं को साधे हुए है, तो वही काम समाजवादी पार्टी क्यों नहीं कर सकती। वह तो अतिपिछड़ों के करीब है। समाजवादी कार्यकर्ताओं की जो फौज है, वह समाजवादी पार्टी को यादव पार्टी के रूप में प्रस्तुत करती है। यह आरोप अकारण नहीं है। 1995 में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारणी में कुल 59 सदस्यों में से उच्च जातियों के 30.6 प्रतिशत, ओबीसी के कुल 42.4 प्रतिशत सदस्यों में से यादव जाति के 22 प्रतिशत और कुर्मी जाति के 1.7 प्रतिशत सदस्य थे। प्रदेश की कोइरी, मौर्य, शाक्य, सैनी जातियों में से कोई नहीं था जबकि गुज्जर, गड़ेरिया, बंजारा जाति को कुछ स्थान मिला था। (स्रोत-इण्डियाज साइलेंट रिवोल्यूशन, क्रिस्टॉफ जफरेल्ट, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, न्यूयार्क, पृष्ठ 373)।
जिप अध्यक्ष के उम्मीदवार भी 50 फीसद यादव
आजकल जिला पंचायत अध्यक्षों का चुनाव चल रहा है। इसमें लगभग पचास प्रतिशत उम्मीदवार केवल यादव समुदाय से हैं। जाहिर है इस कारण भी मौर्य, शाक्य, सैनी और कोइरी, जो संयुक्तरूप से 9 प्रतिशत के लगभग हैं और एक जाति के रूप में स्थापित हो चुके हैं, सपा से दूरी बनाने की नीति पर चलते रहे हैं। ऊपर से परिवारवाद का आरोप भी अकारण नहीं है। शायद इन्हीं कमियों को केन्द्रीय प्रचार में शामिल करते हुए भाजपा ने दलितों और अतिपिछड़ों को अपने पाले में करने में सफलता पायी। यह अवसर उसे सपा ने ही उपलब्ध कराया।
गैर यादव पिछड़े वर्ग में भाजपा की सेंधमारी
प्रदेश में यादवों की संख्या मात्र 9 प्रतिशत है। गैर यादव पिछड़ा समुदाय (कुर्मी, लोध, गड़ेरिया, कहार, केवट, निषाद आदि) लगभग 12 प्रतिशत और अतिपिछड़ा समुदाय (लगभग 70 जातियां, जिनमें कोइरी, मौर्य, शाक्य, सैनी, राजभर आदि मुख्य हैं) 20 प्रतिशत हैं। दलितों में जाटव 13 प्रतिशत, अन्य दलित 8 प्रतिशत और मुसलमान 19 प्रतिशत के लगभग हैं। यह जो गैरयादव पिछड़ा या अतिपिछड़ा वर्ग है, इसी को भुनाने के लिए भाजपा ने ओबीसी आरक्षण को तीन श्रेणियों में बांटने और उसे सदा-सदा के लिए विभाजित करने का दांव खेला है। इसलिए अखिलेश यादव द्वारा, गैर यादव पिछड़े वर्ग को यह अहसास दिलाना होगा कि समाजवादी पार्टी में सभी के हित सुरक्षित होंगे। दलित और अतिपिछड़ों के वोटों का बिखराव रोकने के लिए यादव कार्यकर्ताओं के अराजक व्यवहार को नियंत्रित करना होगा। जैसा कि अभी 5 जून को औरैया के जिला बदर, धर्मेंन्द्र यादव ने जेल से निकलकर गैर कानूनी तरीके से वाहनों पर हूटर लगाकर जलूस निकाला। आखिर इसकी जरूरत क्या थी।
परशुराम की मूर्ति लगाने का वादा
सरकार बनने पर हर जिले में परशुराम की मूर्ति लगाने की बात अखिलेश ने की है। इस बेतुकी घोषणा और यादव परिवार की आध्यात्मवादी रुझानों से कोई लाभ मिलने से रहा। यह वैचारिक घालमेल ही यादव परिवार को वंचित समाज की मुक्तिकामी चेतना से वंचित रखा है। वैसे राजनीति का यह दर्शन, लोहिया में भी मिलता है जहां वह कहते हैं-आध्यात्मिकता और भौतिकता, दोनों की सही समझदारी विकसित होगी, तब इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की क्षमता प्राप्त हो सकेगी। समझदारी के इसी घालमेल के कारण सपा आध्यात्मिक गिरफ्त में है और बहुजन वैचारिकी में कमजोर है। वर्तमान समय में तमाम नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद, अखिलेश यादव के पक्ष में बहुत कुछ सकारात्मक भी है। पहला तो यही कि उनके चाचा से संबंध सुधर रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी की पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल एक बेहतर विकल्प दे सकती है और चन्द्रशेखर की पार्टी, आजाद समाज पार्टी के साथ आ जाते हैं तो निश्चय ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम-दलित वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा को नुकसान पहुंचायेगा। राह में रोड़े तो हैं, मगर गेंद समाजवादी पार्टी के पाले में है। सत्ता की सीढ़ी अतिपिछड़ों, दलितों और मुसलमानों की जमीन पर खड़ी होनी है। उस जमीन पर मजबूती से पांव रखने की जरूरत है। अतिपिछड़ों और दलितों के कुछ कद्दावर नेताओं को अपने पाले में लाने, उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने की जरूरत है। तभी सत्ता की दावेदारी कामयाब होगी, अन्यथा अभी रोड़े हैं इस राह में।
(लेखक, सुभाष चन्द्र कुशवाहा साहित्यकार एवं इतिहासकार हैं, वह लखनऊ में रहते हैं।)