राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश इमरजेंसी के दौर को याद करते हुए कहते हैं…भारतीय राजनीति को समझने के लिए जेपी की जेल डायरी आज भी बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनकी पूरी डायरी में ऐसे अनेक प्रसंग और तथ्य हैं जिससे आज भी प्रेरणा मिलती है। प्रस्तुत है इमरजेंसी के दौरान जेपी के द्वारा लिखी गयी जेल डायरी के कुछ चुनिंदा अंश-:
बलिया : राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश कहते हैं…इमरजेंसी के दौर को समझने के लिए कविताएं, गजल आदि तो अहम दस्तावेज हैं हीं, उस दौर में जेल में लिखी गयीं डायरियां सबसे प्रामाणिक स्रोत हैं। उन दिनों की राजनीति, राजनेताओं को समझने-जानने के लिए जेल में खासतौर से जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर के जेल संस्मरण, उन दिनों की राजनीति, राजनेताओं के मूल चरित्र, स्वभाव, कथनी-करनी का फर्क समझने के लिए सबसे विश्वस्त दस्तावेज है।
आज भी उनकी प्रासंगिकता है और भविष्य में भी रहेगी। भारतीय राजनीति को जानने-समझने के लिए सबसे पहले जेपी की लिखी ‘मेरी जेल डायरी’ की चर्चा। इमरजेंसी लगते ही आधी रात को दिल्ली में नींद से जगाकर जेपी को गिरफ्तार किया गया। फिर उन्हें थाने ले जाया गया। वह जेल भेजे गये। चंडीगढ़ जेल में उन्होंने अपनी डायरी लिखी। इसमें 21 जुलाई, 1975 से लेकर 3 नवंबर 1975 की डायरी के अंश हैं। अंग्रेजी में यह ‘Prison Diary’ के नाम से 1977 में छपी। बाद में इसका अनुवाद डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने किया। यह डायरी एक दस्तावेज है।
21 जुलाई 1975 को 75 वर्षीय जेपी ने लिखा
मेरे चारों ओर सब टूटा बिखरा पड़ा है, नहीं जानता कि अपने जीवन-काल में, वर्तमान समाज को फिर से संवरा हुआ देख पाऊंगा कि नहीं। शायद मेरे भतीजे और भतीजियां ऐसा देख पाएं। शायद, लोकतंत्र के चहुंमुखी विकास तथा विस्तार के लिए मैं प्रयास करता रहा हूं। इसके लिए लोकतंत्र की प्रक्रिया में मैं पूरी तरह जनता को निरंतर साथ लेकर चलने का यत्न करता रहा हूं। इसके दो तरीके हैं..एक, हमें किसी ऐसे तंत्र की व्यवस्था करनी चाहिए जिसके माध्यम से उम्मीदवारों को चुनते समय हम जनता से परामर्श प्राप्त कर सकें। दूसरे, पहले तरीकों की भांति तंत्र की व्यवस्था करके जिसके माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधियों पर निगरानी रख सके और उनसे ईमानदारी के साथ काम करने की मांग कर सके। यही वे दो मूल तत्त्व थे जो मैं, बिहार के इस संघर्ष पूर्ण आंदोलन से प्राप्त करना चाहता था और आज वहां मैं लोकतंत्र के हनन के साथ अपनी कल्पना का हनन होते देख रहा हूं।
हमारे अनुमान कहां गलत रहे, प्राय: मैंने हमारे अनुमान कहे हैं किंतु वह कहना ठीक नहीं होगा। इसके लिए मुझे पूरी तरह जिम्मेदारी लेनी होगी। मेरी यह धारणा गलत सिद्ध हुई कि लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन को परास्त करने के लिए सभी सामान्य एवं असामान्य कानूनों का तो इस्तेमाल करेगा किंतु स्वयं लोकतंत्र का विनाश करके उसके स्थान पर अधिनायकवादी तरीका को अपनाएगा। मुझे विश्वास नहीं होता था कि यदि प्रधानमंत्री चाहें भी तो उनके वरिष्ठ साथी तथा उनकी पार्टी जिनकी पिछली लोकतांत्रिक परंपरा इतनी ऊंची रही है इसकी अनुमति दे देंगे किंतु जिसका विश्वास नहीं होता था वही हुआ। देश में यदि हिंसात्मक विद्रोह हो शुरू गया था यह आशंका होती कि हिंसात्मक तरीके से कहीं सरकार न छीन ली जाए तो ऐसे परिणाम समझ में आ सकता था किंतु एक शांत आंदोलन का यह संहार।
21 जुलाई 1975 को जेपी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखा पत्र
कृपया आप उस बुनियाद को मत नष्ट कीजिए, जिसे राष्ट्रपिता गांधी और आपके महान पिता ने इतने परिश्रम से बनाया था. आपने जिस रास्ते को चुना है, उसमें केवल दुःख और घोर निराशा है। आपको उत्तराधिकार में एक महान परंपरा, महत्वपूर्ण मूल्य और प्रजातंत्र के तत्व प्राप्त हुए हैं। अपने पीछे इनका दुःखपूर्ण अवशेष मत छोड़िए। इनको फिर से जोड़ने में बहुत समय लगेगा। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यहां के लोग, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ युद्धकर उसे परास्त किया है वे आपकी तानाशाही और अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सकते। मनुष्य की चेतना, उसे आप चाहे जितना नष्ट करना चाहें, कभी बर्बाद नहीं हो सकती। अपनी व्यक्तिगत तानाशाही को लागू करने के लिए आपने उन मूल्यों को बहुत गहरे में दफनाना चाहा है पर, वह मानव चेतना कब्र से फिर से जगेगी। यहां तक कि रूस में भी यह धीरे-धीरे जग रही है। आपने सामाजिक लोकतंत्र की बात की है। दिमाग में कितनी सुंदर तस्वीर इन शब्दों से बनती है, पर आपने पूर्वी और मध्य यूरोप में देखा है कि वह सच्चाई कितनी बदशक्ल है। नंगी तानाशाही और अंत में रूस की प्रभुसत्ता। कृपया मेहरबानी कर के भारत को उस भयंकर नियति की ओर मत ठेलिए।
23 जुलाई, 1975 को अपनी डायरी में यह कविता लिखी
जीवन विफलताओं से भरा है, सफलताएं जब कभी आईं निकट, दूर ठेला है उन्हें निज मार्ग से। तो क्या वह मूर्खता थी ? नहीं, सफलता और विफलता की परिभाषाएं भिन्न हैं मेरी। इतिहास से पूछो कि वर्षों पूर्व बन नहीं सकता प्रधानमंत्री क्या? किंतु मुझ क्रांति-शोधक के लिए कुछ अन्य ही पथ मान्य थे, उद्दिष्ट थे, पथ त्याग के, सेवा के, निर्माण के, पथ-संघर्ष के, संपूर्ण-क्रांति के। जग जिन्हें कहता विफलता थीं शोध की वे मंजिलें। मंजिलें वे अनगिनत हैं, गंतव्य भी अति दूर है, रुकना नहीं मुझको कहीं अवरुद्ध जितना मार्ग हो। निज कामना कुछ है नहीं, सब है समर्पित ईश को। तो, विफलताओं पर तुष्ट हूं अपनी, और यह विफल जीवन शत् शत् धन्य होगा, यदि समानधर्मा प्रिय तरुणों का कण्टकाकीर्ण मार्ग यह कुछ सुगम बन जावे।
जेल डायरी में 25 जुलाई, 1975 को लिखते हैं
भारतीय लोकतंत्र पर किया गया प्रत्येक आघात मुझे अपने ऊपर किया गया आघात लगता है। मैंने अपने दिल को टटोला है और मैं सच्चाई से कह सकता हूं कि यदि मेरी अंत में मृत्यु भी हो जाए तो मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है।
26 जुलाई 1975 को जेपी लिखते हैं
आज जेल में मुझे पूरा एक महीना बीत चुका है। मैं यह कहना चाहूंगा कि यह एक महीना एक वर्ष के बराबर था। शायद ऐसा इसलिए महसूस हो रहा है कि पिछले 30 वर्षों पूरा सही कहें तो 29 वर्षों में जेल न जाने के कारण जेल जाने की आदत में ही फर्क पड़ गया है। इतिहास में इंदिरा का शासन बहुत सी उपलब्धियों या उनके अभाव के कारण याद रहेगा। सबसे प्रसिद्ध उपलब्धि जनतंत्र की हत्या है। मुझे यह इसलिए भी याद रहेगा (कुछ महीनें या कुछ वर्ष मुझे जीवित रहना है) कि स्वतंत्र भारत में यह एक ऐसा शासन था जिसमें मैंने पहली बार आंसू गैस लाठियों की चोटों (सीआरपी) और जेल-यातना का अनुभव किया। ब्रिटिश शासन के अधीन मैंने व्यक्तिगत रूप से आंसू गैस अथवा लाठी प्रहार का अनुभव नहीं किया था और अप्रैल 1946 में आगरा की सेंट्रल जेल से रिहाई के बाद मुझे कभी भी नहीं गिरफ्तार किया गया, न ही जेल भेजा गया. एक महीना, एक वर्ष के बराबर लगने का कारण एक और भी था। मुझे विश्वास है-मेरा अकेलापन। जेल के दूसरे साथियों के साथ शायद स्थिति और होती।
07 अगस्त, 1975 को जेपी लिखते हैं
कल रात देवी भगवती की पूजा करते समय मैंने इस अंधकार से निकलने का कोई मार्ग पूछा था और आज प्रायः यह उत्तर मुझे मिला। अपना मन शांत और निश्चिंत पाता हूं। प्रभा के जाने के बाद मुझे जीवन में कोई रुचि नहीं रही। यदि सार्वजनिक कार्य के लिए मुझमें विशेष अभिवृति न विकसित हुई होती तो मैं संन्यास लेकर हिमालय में चला गया होता। मेरा मन भीतर में रो रहा था किंतु बाहर से मैं जीवन के सभी कार्यों में लगा हुआ था। मेरा स्वास्थ्य भी गिर रहा था। उदासी की इस घड़ी में कुछ अनायास बात हुई, जिसके कारण मेरे भीतर प्रकाश हुआ। मेरा स्वास्थ्य भी ठीक होने लगा और मैंने नई शक्ति और उत्साह का अनुभव किया।
समाचारपत्रों को पढ़ना बंद कर दिये जेपी
जेपी लिखते हैं…1973 का अंतिम महीना था। मैं पौनार (पवनार) में था। मेरे भीतर से प्रेरणा हुई कि मैं देश के युवावर्ग का आह्वान करूं। मैंने उनके नाम एक अपील की और ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ शीर्षक के अधीन उसे समाचारपत्रों में छपने के लिए भेजा। मेरे अनुमान से बढ़कर इस अपील पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हुई। इमरजेंसी के दौर में प्रेस पर सेंसरशीप लगा था। एकतरफा खबरें छपती थीं। विपक्षी दलों की आवाज को बंद कर, सरकार द्वारा झूठ से भरे एकतरफे प्रचार की खबरें छपती थी। लिहाजा जेपी ने समाचारपत्रों को पढ़ना बंद कर दिया था।
12 अगस्त, 1975 को जेल डायरी में लिखते हैं
मैंने फिर से समाचारपत्रों को पढ़ना शुरू कर दिया है। श्रीमती गांधी लगातार मुझपर आक्रमण कर रही हैं और मुझे बदनाम कर रही हैं। वह कहती हैं कि मैं संसदीय लोकतंत्र का विरोधी रहा हूं और मुझे तानाशाही में विश्वास रखनेवाला बताया गया है। जितनी वह अथवा उनके साथी कहते हैं, वे भूल जाते हैं कि मैं कुछ चुनाव सुधार की मांग करता रहा हूं (जिससे चुनाव को कम खर्चिला बनाने के लिए साधन जुटाए जाए) ताकि हमारा संसदीय लोकतंत्र अधिक लोकतांत्रिक बन सके।
13 अगस्त, 1975 को जेपी लिखते हैं
मेरे साथ यदि एक भी राजनीतिक बंदी होता तो उसे इस तल के कई कमरों में से कम से कम एक कमरें में, तो रखा ही जा सकता था हम आपस में बातें कर सकते थे और अपने भाव व्यक्त कर सकते थे यह सब मेरे लिए दवा की बहुत सी टिकिया, आराम और नींद की गोलियों के बराबर होता। दिन पूर्व तक अधिक निश्चित रूप से कहें उस दिन तक जिस दिन मैंने यह पृष्ठ लिखें, मैंने निर्णय ले लिया था कि श्रीमती गांधी जो कहेंगी मैं, उसपर टिप्पणी नहीं दूंगा। इतना परेशान हो जाता था कि कई बार मुझे नींद की गोलियों के लिए टेलीफोन करना पड़ता किंतु अब मैंने उस स्थिति को पार कर लिया है। फिर साथी की कमी मैं, बहुत शिद्दत से महसूस कर रहा हूं। जिसके साथ मन की खुली बातें की जा सकें। मेरे किसी बंधु के मेरे साथ रहने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतः यह मेरे लिए एकांत कारावास है। सिवाय कुछ समय के लिए जब मुझे पहरे में थोडी देर के लिए सैर के लिए ले जाया जाता है, बाकी दिन और रात मुझे अपने कमरें में बंद रहना पड़ता है।
इसी में वह आगे लिखते हैं
ब्रिटिश शासन के दिनों में मैंने वर्षों जेल में बिताएं हैं। जब तक किसी को तन्हाई की सजा न दी गई हो, जब तक तालाबंदी का समय न आए उसे स्वतंत्रता होती थी कि अपने वार्ड में अपने साथी बंदियों से मिले, खेल खेले, बातचीत करे, इकट्ठे पढ़ें और जेल के नियम के अधीन जो कुछ भी करना चाहे, करें। जब कोई बीमार हो जाता था और जेल अस्पताल में भेजा जाता था तो वहां पर दूसरे वार्डों के साथी बंदी भी मिलते थे और प्रसन्नता होती थी। केवल लाहौर जेल में कुछ महीना के लिए मुझे एकांत कारावास में रखा गया था। इसी बीच व्यक्ति स्वतंत्रता की याचिका दर्ज की जाती, सरकार को पत्र इत्यादि लिखे जाते और अंततोगत्वा एक दिन हम सबकी प्रसन्नता और आश्चर्य में श्री राम मनोहर को मेरी कोठरी में लाया गया। (इन्हें मेरे कुछ महीनों बाद लाहौर किला में लाया गया था) इसके बाद जब तक हम दोनों को इकट्ठे आगरा सेंट्रल जेल नहीं स्थानांतरित कर दिया गया, हम प्रतिदिन एक घंटा मिलते थे। आगरा जेल में हमें एक बड़े कमरे या बैरक में इकट्ठे रखा गया।
15 अगस्त 1975 को जेपी आगे लिखते हैं
क्या उस लोकतंत्र का आज कुछ शेष है। यह सब इतना कृत्रिम और दु:स्वपन सा लगता है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को बार-बार लोगों को आश्वासन देना पड़ता है। आपातस्थिति एक अस्थाई मामला है कि भारत केवल लोकतंत्र से एक रह सकता है आदि-आदि। आज स्वतंत्रता दिवस संदेशों में इन दोनों महानुभावों ने इन आश्वासनों को दोहराया है किंतु ये निकम्मी और ओछी दलीलें जिनके आधार पर आपातस्थिति की घोषणा की गई थी और बाद में संविधान में संशोधन किए गए। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ये दलीलें केवल भुलावा देने के लिए है। जहां तक श्रीमती गांधी का संबंध है, वह लोकतंत्र में विश्वास नहीं करती और पूरी कोशिश करेंगी कि फिर से लोकतंत्र कायम न होने पाए। देखना यह है कि लोकतंत्र में विश्वास रखनेवाली शक्तियां, इस देश में कितनी देर तक इस षडयंत्र को चलने देंगी। मैं यदि भारत के लोगों और युवा वर्ग को ठीक प्रकार से समझाता हूं तो मुझे तनिक भी संशय नहीं है कि वे इसे कभी नहीं होने देंगे। साभार-फेसबुक पेज