भोजपुरी भाषा और गांव से रहता गहरा लगाव, कर्मभूमि बनी कोलकाता। बेहया का जंगल नाम के ललित निबंध से सामाजिक जटिलताओं को किया उजागर। यूपी में बलिया का बलिहार गांव हैं पद्मश्री डा. कृष्ण बिहारी मिश्र का जन्म स्थान।
जन्मदिवस पर विशेष
बलिया : जिले के बलिहार गांव में एक जुलाई 1936 को जन्मे वर्ष 2018 में पद्मश्री सम्मान से सम्मानित डा. कृष्ण बिहारी मिश्र का साहित्य जगत में अप्रतिम योगदान है। इस साहित्य पुरोधा ने युवा पीढ़ी के लिए के लिए प्ररेणात्मक नजीर पेश किया है। बेहया का जंगल नाम से अपने ललित निबंधों के संकलन से सामाजिक की जटिलता को उजागर करते हुए डा. मिश्र ने हिंदी साहित्य जगत को भी अलग सोच का एहसास कराया है। आंकलन ग्रंथ ‘गांव की कलम’ में उन्होंने अपनी माटी की ओर से साहित्य जगत में भोजपुरी सुगंध डालने का काम किया हैं।
ग्रंथ ‘गांव की कलम’ में दिखता अपनत्व का भाव
डा. कृष्ण बिहारी मिश्र की कर्मभूमि कोलकाता है लेकिन गांव की धरती से भी उनका गहरा लगाव है। वर्ष 2018 से पूर्व प्रत्येक साल वह अपने गांव आते थे। गांव से लगाव का ही देन है कि उन्होंने अपने ग्रंथ ‘गांव की कलम’ में भोजपुरी में ही गांव के अपनत्व के भाव को व्यक्त किया है। उन्होंने लिखा है..गांव का नाम सुनते ही माइ मन परि जाले। आ माई के मन परते मन रोआइन-पराइन हो जाला। गांव के सपना माइ पर ही टिकल रहे। ओकरा मुअते नेह-नाता मरुआ गइल। इस सांच बात बा कि गांव के माटी आ गांव के हवा-पानी से बनल मन में गांवें समाइल रहेला। घर-आंगन, आस-पड़ोस, दुआर-बथान, खेत-खरिहान, मठिया-बगइचा, परती-परांत, परब-तेवहार, संगी-साथी, आपन गाला बैल, पुरनिया लोगन के संगे हरदम हंसत रहे वाला छोह के नदी जब तब बेसुध कइ देले आ शहर से पगहा तुरा के गांव जाए खातिर मन पगला जाला।
खेती के समुहित के दिन मानो उतर आते थे देवता
अपने गांव में खेती के बारे में डा. मिश्र भोजपुरी में ही लिखते हैं…खेती के समुहित (शुरूआत) के दिन बुझाइ जे आंगन में देवता उतरि आइल बाडें। बड़का बाबा हाथ में भरल लोटा, माथ पर गमछी रख के देवता, पितर के सुमिरत आंगन से निकलसु, संगे-संगे हरवाह दुआर के रखवार आउर घर के लोग खेत तक जाए लोग। बड़का बाबा खेत के माथ पर खड़ा होके अनपुरना के स्वामी के गोहरावस..चारु कोने, चारु मन, बिगहा पचास मन। ओह दिन खेत में बोआइ के शुरूआत होखे। घर पर कढ़ी, बड़ी, फुलौरा-भात बने। बैल आ गाय के देवता लेखा पूजा करके, पहिले उनके ही खियावल जाए। इस तरह गांव की मिट्टी से जुड़ी और भी कई बातों का उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक में बारिकी से किया है।
- संक्षिप्त परिचय
- जन्म : 1 जुलाई 1936, बलिहार, बलिया, उत्तर प्रदेश।
- भाषा : भोजपुरी, हिंदी
- विधाएं : निबंध, पत्रकारिता, जीवनी, संस्मरण, संपादन, अनुवाद।
- मुख्य कृतियां : पत्रकारिता, हिंदी पत्रकारिता : जातीय चेतना और खड़ी बोली साहित्य की निर्माण-भूमि, गणेशशंकर विद्यार्थी, पत्रकारिता : इतिहास और प्रश्न।
- ललित निबंध संग्रह : बेहया का जंगल, मकान उठ रहे हैं, आंगन की तलाश, अराजक
- उल्लास, गौरैया ससुराल गया, खोंइछा गमकत जाइ, फगुआ की तलाश में, सइयां के जाए न देबों बिदेसवा, नई-नई घेरान।
- विचार प्रधान निबंध संग्रह : आस्था और मूल्यों का संक्रमण, आलोकपंथा, परंपरा का पुरुषार्थ, माटी महिमा का सनातन राग, न मेधया, भारत की जातीय पहचान, सनातन मूल्य।
- आंकलन ग्रंथ : गांव की कलम।
- संस्मरण : नेह के नाते अनेक, मौन का सर्जनशील सौंदर्य।
- जीवनी : कल्पतरु की उत्सव लीला (रामकृष्ण परमहंस)
- संपादन : हिंदी साहित्य : बंगीय भूमिका, श्रेष्ठ ललित निबंध, कलकत्ता-87, नवाग्रह (कविता
- संकलन), समाधि (त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका)
- अनुवाद : भगवान बुद्ध (यूनू की पुस्तक का अनुवाद, कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रकाशित)
- सम्मान : मूर्तिदेवी पुरस्कार (भारतीय ज्ञानपीठ)पद्मश्री ( भारत सरकार)
गांव से है गहरा लगाव
डा. कृष्ण बिहारी के गांव बलिहार के रिश्ते में छोटे भाई काशीनाथ मिश्र बताते हैं कि डा. मिर का गांव से गहरा लगाव रहता है। सुबह या शाम में उनसे बात हो पाती है। गांव में मकान में ताला बंद रहता है। यहां उनकी काफी जमीन है। उनके जन्म दिन पर गांव के लोग उनकी पुस्तकें पढ़कर याद करते हैं। बताया कि उनकी सभी पुस्तकें मेरे पास पहुंचते रहतीं हैं।