हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद यथार्थवादी प्रमुख कहानीकार रहे अमरकांत। गांव पर प्राप्त की प्रारंभिक शिक्षा, इलाहाबाद में रहकर किया साहित्य जगत में नाम। अमरकांत से किसी का दुख देखा नहीं जाता था। आपस में झगड़ा व मनमुटाव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। बचपन में अमरकांत को मजदूरों की स्थिति को देखकर बड़ा दुख होता था।
जयंती पर विशेष
बलिया : बलिया के नगरा ग्राम पंचायत के भगमलपुर में एक सामान्य कायस्थ परिवार में एक जुलाई 1925 को जन्में अमरकांत अपने शिक्षा-संस्कार के बारे में लिखते हैं..गांव पर ही मुझे अक्षराम्भ कराया गया। इसको शिक्षा-संस्कार कहा जा सकता है। यह एक लघु समारोह था। बड़े आंगन में चौका पूरा गया था। उसके बगल में मुझे नई पोशाक पहना कर बैठाया गया। हमारे पुरोहित जी अक्षत, फूल, पान, सुपारी, जल आदि से पूजा-पाठ कर मंत्रोच्चारण किए। फिर वह मुझसे बोले, ‘कहो, रामागति देहू सुमति। मेरे बगल में घर के लोग भी खड़े थे, उनकी मदद से मैंने तीन बार वही कहा। फिर पंडित जी ने मेरा हाथ पकड़ कर स्लेट पर राम, राम और क, ख` लिखवाया। मेरे माथे पर रोली का टीका लगाया। उसके बाद मै सभी का चरण स्पर्श कर अर्शीवाद लिया। पूजा-समाप्ति के बाद कोई पकवान और सम्भवत: मिठाई भी खाने को मिली थी। उसके बाद प्राइमरी स्कूल में उनका नाम लिखाया गया। उस विद्यालय के हेडमास्टर एक मौलवी जी थे जो हमेशा हांथ में छड़ी लेकर घूमते थे। यहीं से अमरकांत की प्रारंभिक शिक्षा आरंभ हुई और गांव की शिक्षा और संस्कार ने अमरकांत को आगे चलकर साहित्य जगत का सितारा बना दिया।
किसी का दुख नहीं देख पाते थे अमरकांत
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि अमरकांत से किसी का दुख देखा नहीं जाता था। आपस में झगड़ा व मनमुटाव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। बचपन में अमरकांत को मजदूरों की स्थिति को देखकर बड़ा दुख होता था। मजदूरों के पहनावे, उनके दुबले-पतले शरीर और दिन भर की जी तोड़ मेहनत के बाद भी मजदूरों का एक आना भी न कमा पाने वाली स्थितियों को देखकर अमरकांत को बड़ा दुख होता था।
पारिवारिक पृष्ठभूमि : पिता सीताराम वर्मा बलिया कचहरी में मुख्तार थे। वह सात भाइयों व एक बहन में दूसरे नंबर पर थे। माता अंती देवी, जबकि इनके बचपन का नाम श्रीराम लाल था। इनके पिता दो भाई थे। दूसरे भाई साधुशरण लाल थे। उनकी केवल एक पुत्री थीं।
प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव को गांव ने स्वीकारा
चचेरे भाई कृपाशंकर श्रीवास्तव कहते हैं कि अमरकांत जी हमेशा इलाहाबाद में ही रहे, फिर भी वह अपनी मातृ भूमि नगरा से जुड़े रहे। जब कभी भी हम लोग इलाहाबाद जाते थे तो वे नगरा के विषय में जरूर पूछा करते थे। साल भर पहले उनके छोटे पुत्र अरुण कुमार श्रीवास्तव सपरिवार गांव आए थे। उन्होंने अपने पिता की प्रतिमा लगाने का प्रस्ताव रखा, जिसे गांव के लोगों ने स्वीकार कर लिया। भगमलपुर में उन्हें याद करने को उनकी भूमि पर प्राइवेट स्कूल चल रहा है। 17 फरवरी 2014 को अमरकांत जी इस लोक से विदा हो गए।
प्रमुख कृतियां
कहानी संग्रह : जिंदगी और जोंक, देश के लोग, मौत का नगर, मित्र-मिलन तथा अन्य कहानियां, कुहासा, तूफान, कला प्रेमी आदि।
उपन्यास : सूखा पत्ता, काले-उजले दिन, कंटीली राह के फूल, ग्रामसेविका, पराई डाल का पंछी, सुखजीवी आदि।
प्रमुख उपलब्धियां : वर्ष 2009 के लिए 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार। सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, महात्मा गांधी सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्य पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन संस्कृति सम्मान, मध्य प्रदेश का कीर्ति सम्मान और बलिया के 1942 के स्वतंत्रता (भारत छोड़ो) आंदोलन को आधार बनाकर लिखे गए इनके उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ को वर्ष 2007 का प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ और ‘व्यास सम्मान’ (2009) प्रदान किया गया।