अपने यहां कमजोर और संशोधनवादी वामपंथियों के अलावा, बाकी कोई भी मुख्यधारा की पार्टी, न तो लोकतंत्रात्मक पद्धति में विश्वास करती है और न लोकतंत्र की रक्षा में सक्षम दिखती है। पार्टियों में जब लोकतंत्र का खात्मा होता है तब जाति और कुल के स्वयंभू नेता जन्म लेते हैं। बहुतायत में पार्टियां बनती-बिगड़ती हैं, जो कुल मिलाकर लोकतंत्र को कमजोर करने में सहायक होती हैं और निरंकुश सत्ता की कठपुतलियां सिद्ध होती हैं।
NEWS DESK : भारत के जातिवादी समाज का निर्माण, धर्मसत्ता और सामंतशाही की सेवा और मेवा के लिए किया गया है। आज की धर्मसत्ता और सामंतशाही, जातिवाद को तानते, नाथते, फंदों में फंसाते, वंचितों को गुलाम बना रही है। गैर बराबरी की कुसंस्कृति में अमानवीयता की हद तक कुकृत्य प्रतिष्ठित रहे हैं और राजनैतिक व्यवस्था को विकृत कर, उच्चवर्णीय सत्ता सुख भोगती रही है। ओबीसी और दलितों को अंधराष्ट्रवादी रुझानों और धार्मिक फंतासियों में फांसे, वे अपनी पीढ़ियों के लिए सभी संसाधनों पर कब्जा बनाये रखने की रणनीति सिखाती रही है। चूंकि उनकी ऐसी नीति-रीति, अलोकतांत्रित रही है। इसलिए वे लोकतंत्र को नष्ट कर देना चाहती हैं जिससे पिछड़ों पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखा जाए। अपने यहां कमजोर और संशोधनवादी वामपंथियों के अलावा, बाकी कोई भी मुख्यधारा की पार्टी, न तो लोकतंत्रात्मक पद्धति में विश्वास करती है और न लोकतंत्र की रक्षा में सक्षम दिखती है। पार्टियों में जब लोकतंत्र का खात्मा होता है तब जाति और कुल के स्वयंभू नेता जन्म लेते हैं। बहुतायत में पार्टियां बनती-बिगड़ती हैं, जो कुल मिलाकर लोकतंत्र को कमजोर करने में सहायक होती हैं और निरंकुश सत्ता की कठपुतलियां सिद्ध होती हैं।
पद-प्रतिष्ठा तक सीमित छोटी पार्टियों के नेताओं की सोच
आज निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद तो साफ-साफ कह रहे हैं कि उनके बेटे को मंत्री न बनाना निषादों का अपमान है। गोया पूरी निषाद बिरादरी का सौदा वह अपने और अपने बेटे के सत्ता सुख के लिए करना चाहते हैं। निषादों की नौकरी, रोटी-रोजगार, सुरक्षा-सम्मान सब कुछ छिन जाए, उनकी बेटियों की इज्जत दांव पर लग जाए, इससे क्या फर्क पड़ता है, बस उनके बेटे को मंत्री पद मिलना ही निषाद कौम का सम्मान समझा जायेगा। फिलहाल सामंतशाही के पैरोकारों की बात छोड़, वंचित समाज के राजनेताओं की वैचारिकी की बात करते हैं जो फिलहाल ढुलमुल सौदेबाजी से आगे नहीं बढ़ पायी है। राजनीति में वंचित जातियों के राजनेताओं की नीतियां, खुद के पद-प्रतिष्ठा से ऊपर नहीं उठती दिखाई देतीं यद्यपि वे पार्टी को खड़ा करते समय उच्च जातियों के जुल्मों, शोषण और दमन को सामने रखती हैं। अपनी जाति को संगठित कर, उच्च जातियों के दमन और शोषण के खिलाफ लड़ने, अपने हक और हुकूक को प्राप्त करने का आह्वान करती हैं। ऐसी छोटी-छोटी पार्टियों के नेताओं की सोच महज अपने स्वार्थ और अपने पद-प्रतिष्ठा तक सीमित रहती है। यानी उनको पद-प्रतिष्ठा मिल जाए तो समझिए कि उनकी जाति को पद और प्रतिष्ठा मिल गयी। यह स्वार्थी सि़द्धांत इतना अंधा और संकुचित होता है कि कभी-कभी वंचित समाज के नेता, अपने परंपरागत विरोधियों की चाकरी में जीवन बिता देते हैं। हमने रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, अठावले, उपेन्द्र कुशवाहा, स्वामी प्रसाद मौर्य, ओम प्रकाश राजभर आदि को देखा है आज हम अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद को देख रहे हैं। वंचित समाज से आए ये नेता, अपनी कुर्सी के लिए वंचित समाज की गुलामी का सौदा कर देते हैं। वे इस तथ्य से आंख मूंद लेते हैं कि उनके समाज को भेदभाव के आधार पर नौकरियों और अन्य सत्ता प्रतिष्ठानों से बेदखल किया जा रहा है।
एक समय में भाजपा को मजबूत कर रहे थे ओम प्रकाश राजभर
उत्तर प्रदेश के वंचित समाज के ओम प्रकाश राजभर एक समय में भाजपा को मजबूत करने में लगे थे। आज अपनी सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी(एस.बी.एस.पी) की पहल पर राष्ट्रीय भागीदारी पार्टी नाम से पांचवां मोर्चा खड़ा किए हैं जिनमें 9 से अधिक पार्टियां शामिल हैं। इनमें बाबू सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी, असदुद्दीन ओबैसी की ऑल इण्डिया मजलिस-इ-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी, अनिल सिंह चैहान की जनता क्रांति पार्टी, कृष्णा पटेल की अपना दल (कमेरावादी), बाबू रामपाल की राष्ट्र उदय पार्टी, रामशरण कश्यप की भारतीय वंचित समाज पार्टी, प्रेमचंद प्रजापति की भागीदार पार्टी(पी), देवेंद्र सिंह लोधी की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी, केवट रामधनी बिन्द की भारतीय मानव समाज पार्टी आदि। निश्चय ही इन पार्टियों के नामों से वंचित समाज से जुड़ाव का बोध होता है मगर क्या वंचित समाज की इन पार्टियों की पहुंच और नीतियां, वंचित समाज के लिए हैं, यह विचार का बिन्दु होना चाहिए। निम्न जातियों के हर जाति की एक पार्टी होने से क्या निम्न जातियों की सत्ता में कोई भागीदारी बन पायेगी या वह खुद का सौदा करने या आखेट हो जाने को अभिशप्त होंगी।
किसी एक जाति के दम पर क्या जीत सकते चुनाव
प्रदेश में मुख्य ओबीसी जाति, यादवों की संख्या मात्र 9 प्रतिशत है। गैर यादव पिछड़ा समुदाय (कुर्मी, लोध, गड़ेरिया, कहार, केवट, निषाद आदि) लगभग 12 प्रतिशत और अतिपिछड़ा समुदाय (लगभग 70 जातियां, जिनमें कोइरी, मौर्य, शाक्य, सैनी, राजभर आदि मुख्य हैं)20 प्रतिशत हैं। दलितों में जाटव 13 प्रतिशत, अन्य दलित 8 प्रतिशत और मुसलमान 19 प्रतिशत के लगभग हैं। स्रोत https://fingfx.thomsonreuters.com/gfx/rngs/INDIA-ELECTION/010031Y54EE/index.html ऐसे में किसी एक जाति का नेता, सिर्फ अपनी जाति के बल पर चुनाव कैसे जीतेगा। एक समान विचार या निकटतम विचारधारा की पार्टी के साथ गठबंधन के बिना, क्या कुछ संभव है। अगर वंचित समाज के किसी पार्टी विशेष के नेता को, सामंती विचारों की पार्टी से कुछ झुनझुना मिल जाता है तो वह उधर जाने को तैयार बैठा है। तब उसे वंचित समाज का कल्याण, अपने कल्याण के आगे गौण लगने लगता है। यही है आज के वंचित समाज के नेताओं की भूमिका।
वंचित समाज का हर नेता खुद ही एक दल
वंचित समाज का हर नेता एक दल के रूप में मौजूद है। कुछ क्षेत्रीय पार्टियों का आगमन, वंचित समाज की गोलबंदी के आधार पर हुआ मगर वहां भी व्यक्तिवादी राजनीति ही शीर्ष पर रही। सत्ता की चहारदिवारी, परिवार की चहारदिवारी बन गयी। परिवार और खानदान ही पार्टी का नेतृत्वकर्ता बन बैठा। राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, अपना दल, राष्ट्रीय लोकदल, डीएमके आदि में यह देखा जा सकता है। ऐसी राजशाही सोच से लोकतंत्र या वंचित समाज की हिफाजत, भला कैसे संभव है। सभी छोटी-छोटी पार्टियों के अध्यक्ष, राष्ट्रीय कहे जाते हैं यद्यपि उनकी पहुंच कुछ जिले या प्रदेश से बाहर नहीं होती है। कहने को ओमप्रकाश राजभर कह रहे हैं कि वह भाजपा को रोकने के लिए ममता बनर्जी, आम आदमी पार्टी आदि से राष्ट्रीय स्तर पर एक मोर्चा बना रहे हैं मगर विगत में उन्होंने अंतिम क्षण तक भाजपा से यह उम्मीद बनाये रखी थी कि कोई महत्वपूर्ण पद-प्रतिष्ठा मिल जाए। अगर ऐसा हो गया होता तो शायद उन्होंने स्वयं को अलग नहीं किया होता और तब वंचित समाज की मुक्ति, उनकी मुक्ति में समाहित हो गयी होती।
धारदार बोलते हैं ओबैसी
ओबैसी साहब पढ़े-लिखे हैं। बोलते भी धारदार हैं और वह भी भाजपा को बाहर रखने की नीति पर चलने की बात करते हैं मगर उनके कृत्य, सदा सत्ता को मजबूत करते रहे हैं। बिहार चुनाव में वह अगर राष्ट्रीय जनता दल के साथ होते तो शायद परिदृश्य कुछ और होता।उत्तर प्रदेश चुनाव में जिस तरह से बहुसंख्यक पार्टियों ने अपनी-अपनी ताल ठोक रखी है, वे व्यापक विपक्षी एकता की संभावना को खत्म करेंगी और अंततः सत्तारूढ़ पार्टी की मदद करेंगी। सिद्धांत विहीनता, सदा सत्ता के पक्ष में चले जाने को अभिशप्त होती है। सिद्धांत विहीन वंचित समाज की पार्टियों से वंचितों का भला नहीं होने वाला है। भारतीय राजनीति में अभी बहुजन वैचारिकी की सही पड़ताल नहीं हो पायी और न छोटी-छोटी पार्टियां, अपने ‘मैं’ से मुक्त हो, व्यापक दमित समाज की मुक्ति और चेतना के लिए एकजुट हो, निर्णायक लड़ाई हेतु तैयार हैं। ऐसे में अपनी-अपनी जाति के सहारे अपने हितों की हिफाजत, एक छलावा के अलावा कुछ नहीं है।
(सुभाष चंद्र कुशवाहा साहित्यकार और इतिहासकार हैं, वह लखनऊ में रहते हैं।)