उपन्यास और कहानियों की विशिष्ट परंपरा विकसित कर कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले मुंशी प्रेमचंद ने हिंदी साहित्य में यथार्थवादी परंपरा की नींव रखी। 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में जन्में उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। शुरू में एक लंबे समय तक वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लेखन करते थे। हिंदी और उर्दू में समान रूप से लोकप्रिय रहे उपन्यासकार, कहानीकार और सम्पादक प्रेमचंद ने साहित्य के जरिये अपने समय पर प्रतिरोध के स्वर और सामाजिक चेतना की छाप छोड़ी।
बलिया : जिस प्रेमचन्द के निधन पर उनके मुहल्ले के लोगों ने कहा कि कोई मास्टर था जो मर गया, जिस प्रेमचन्द की अत्येंष्टि में दस बारह लोग ही मुश्किल से शामिल हुए थे, वह प्रेमचन्द अपने निधन के 85 साल बाद भारत के एक बड़े साहित्यिक सांस्कृतिक प्रतीक बन गए हैं। गालिब और टैगोर और सुब्रमण्यम भारती की तरह आज वह भी एक राष्ट्रीय नायक बन गए हैं। एक ऐसा नायक जो अपने समय के राजनेताओं से भी आगे का सोचता था जिसके पास एक गहरी अंतर्दृष्टि थी और जो अपनी जनता से अथाह प्यार करता था। गरीबों शोषितों और वंचितों के लिए जिसके मन में गहरा दर्द था। वह दर्द भी उस तरह था जिस तरह गांधी, नेहरू और आंबेडकर के मन में था। प्रेमचन्द के समय पचासों लेखक कविता कहानी उपन्यास लिख रहे थे। पांच दस तो ऐसे थे जो प्रतिभा में उनसे कम नहीं थे लेकिन प्रेमचन्द की तरह कोई नहीं था। प्रेमचन्द का साहित्य में अपना एजेंडा स्पष्ट था। उनकी दृष्टि साफ थी। उनका लक्ष्य संदेश और लेखकीय दायित्व भी साफ था इसलिए कोई दूसरा प्रेमचन्द नहीं बन सका, लेकिन यह सब एक दिन में नहीं हुआ। 1915 में हिंदी में छपी कहानी सौत और उपन्यास सेवासदन, से लेकर कफन और गोदान तक उनका उत्तरोत्तर विकास हुआ ठीक राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर। प्रेमचन्द का जन्मदिन एक सांस्कृतिक उत्सव की तरह बन गया है। एक ऐसा उत्सव जिसमें विचारों की रौशनी है, जिसमें अपने समय और समाज को पहचानने की नब्ज हो। आज मुल्क जिस फासीवाद के मुकाम पर पहुंच गया है प्रेमचन्द आज भी उससे लड़ने की ताकत देते हैं क्योंकि यह फासीवाद साम्प्रदायिकता और हिंदुत्व की कोख से निकला है, यह मुल्क की बदहाली से निकला है। हर साल 31 जुलाई आते ही साहित्य जगत में प्रेमचंद जयन्ती देश के किसी न किसी कोने में जरुर मनाई जाती है और लोग उस रौशनी को खोजने निकल पडते हैं जो गुम होती जा रही है। आज के दिन प्रेमचंद की परम्परा का जिक्र भी जरूर किया जाता है। प्रेमचंद निसंदेह राष्ट्रीय आन्दोलन के लेखकों में सबसे बड़े प्रतीक हैं। जिस तरह आजादी की लड़ाई में गांधी सबसे बड़े प्रतीक हैं, लेकिन गांधी के साथ हम नेहरू, पटेल, सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह आदि को भी जरूर याद कर लेते हैं। अब तो आंबेडकर भी गांधी के बाद एक दूसरे बड़े प्रतीक के रूप में उभरे हैं, लेकिन क्या प्रेमचन्द की परम्परा केवल प्रेमचन्द ने बनाई थी और वह पहले व्यक्ति थे जो साहित्य में यथार्थवाद के प्रणेता थे। क्या प्रेमचन्द की परम्परा को केवल प्रेमचंद ने ही बनाया था या उसमें उनके समकालीनों का भी कोई योगदान था। उनमें से अधिकांश आज या तो विस्मृत हैं या उपेक्षित हैं या अलक्षित। उनमें से कई लोगों की रचनायें आज मिलती ही नहीं। उनमें से कुछ की जन्मशातियां मनाई गयीं तो थोड़ा बहुत ध्यान हिंदी समाज का गया, लेकिन प्रेमचंद की परम्परा को बनाने में उनके समकालीनों के अलावा उनके पूर्ववर्ती लेखकों का भी योगदान है।