गुरू स्वयं ज्ञान रूप हैं। वे ज्ञान के लिए किसी शास्त्र पर निर्भर नहीं, वे ऐसी विभूति हैं जिन्होंने ज्ञान को अपना आचरण बना लिया है। यही वह प्रमुख कारण है जिसके चलते गुरू की सन्निधि का इतना महत्व है।
- एस पांडेय, बैरिया
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्ण के जयंती के अवसर पर जनपद के सरहानीय सेवा देने वाले शिक्षकों को जिला विद्यालय निरीक्षक बलिया द्वारा प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया। इस कड़ी में एक नाम द्वाबा की धरती से माध्यमिक वित्तविहीन प्रधानाचार्य महासभा उत्तर प्रदेश के प्रदेश उपाध्यक्ष नागेंद्र प्रसाद सिंह का भी था। वह वित्त विहीन विद्यालय शिक्षक शिवनाथ सिंह इंटरमीडिएट कालेज टोला शिवनराय के प्रधानाचार्य है।
अपने छात्रों के बीच एक अलग पहचान बनाने वाले श्री सिंह को गंगा बहुद्देशीय सभागार में मंत्री आनंद स्वरूप शुक्ल, उपेंद्र तिवारी और डीआइओएस डा. ब्रजेश मिश्र ने सम्मानित किया। उसके बाद विद्यालय में भी शिष्यों ने उनके लिए सम्मान समाराह का आयोजन कर उन्हें सम्मानित कर आर्शीवाद लिया। सम्मान मिलने के बाद वित्तविहीन विद्यालयों के प्रधानाचार्यो द्वारा भी श्री सिंह को बधाई दिया जा रहा
संस्कारयुक्त शिक्षा देना ही मूल मकसद : नागेंद्र
गुरू और शिष्य के संबंधों पर प्रधानाचार्य नागेंद्र प्रसाद सिंह का कहना है कि गुरू-शिष्य संबंध और इस संबंध की परंपरा बहुत ही पुरानी है। गुरू-शिष्य संबंध न तो रक्त संबंध हैं और न ही किसी प्रयोजन से बनाया गया सामाजिक संबंध। यह एक आध्यात्मिक संबंध है। गुरू के पास शिष्य एक विशेष ज्ञान, विशेष प्रतिभा, विशेष साधना, विशेष सर्जना, विशेष आचरण और विशेष सिद्धि के लिए जाते हैं। एक शिष्य का ‘समर्पण ही इस संबंध की आधारशिला है। गुरू-शिष्य परंपरा का पहला रूप आध्यात्मिक साधना से संबंध रखता है। आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए सदियों से भारत में जिज्ञासु, शिष्यत्व ग्रहण करने सिद्ध गुरूओं के पास जाते रहे हैं। अपने शिष्यों के लिए मेरी कोशिश रहती है कि उन्हें एक बेहतर जीवन जीने के लिए संस्कारयुक्त शिक्षा दी जाए। मुझे खुशी है कि आज मेरे बहुत से शिष्य जीवन के सुंदर पथ पर सफर कर रहे हैं।