लोकमानस में पीढ़ियों से रचे, बसे ‘राम’ का नाम भारत, भारतीयता के तमाम आयाम को सामाजिक,सांस्कृतिक तौर पर एक सूत्र में जोड़ने का सबसे पुराना और विश्वसनीय नाम है। लेखन की दुनिया में तो राम एक ऐसे नायक हैं, जिन पर सबसे ज्यादा लिखा गया।
- हरिवंश
लोकमानस में पीढ़ियों से रचे, बसे ‘राम’ का नाम भारत, भारतीयता के तमाम आयाम को सामाजिक,सांस्कृतिक तौर पर एक सूत्र में जोड़ने का सबसे पुराना और विश्वसनीय नाम है। लेखन की दुनिया में तो राम एक ऐसे नायक हैं, जिन पर सबसे ज्यादा लिखा गया। वजह है कि राम इतने विराट, इतने बहुआयामी हैं कि इतना कुछ लिखे, कहे जाने के बाद भी बहुत कुछ शेष बचा रह जाता है, लिखने,कहने और शोध करने को। उनके जीवन का कोई एक प्रसंग हो तो उसके भी अनेक आयाम खुलते हैं। यूं तो राम के जीवन के हर प्रसंग प्रेरित करते हैं, पर ‘वनगमन’ प्रसंग के प्रति एक अलग आकर्षण रहा। ‘वनगमन’ प्रसंग से जुड़ाव की कोई एक वजह बता पाना संभव नहीं। अनेक कारणों से. शायद, एक बड़ी वजह यह भी कि बनारस से रिश्ता रहा। वहां के गंगा घाटों पर बिंध्य इलाके से, मीरजापुर इलाके से आनेवाले लोक कलाकारों से ‘राम वनवास’ के अनूठे गीत सुनने को मिलते थे. कजरी,बिरहा आदि के रूप में। भिलनी का वह गीत, ‘रामा-रामा रटते-रटते, बिती रे उमरिया…’ विरह का वह गीत, ‘किन मोरी अवध उजाड़ी हो रामा, बिलखै कौशल्या..। एक वजह यह भी कि जीवन का सबसे उर्वर समय वनवासी-आदिवासी इलाके में काम करते हुए बिता। वनवासी राम की छवि में आदिवासी समाज का दर्शन दिखता है। त्याग की प्रतिष्ठा, आत्मसंतोष की पराकाष्ठा, सबसे मिलकर, सबको मिलाकर एक समुदाय के तौर पर विकसित होने का रिवाज। यही तो मूल है वनवासी, आदिवासी जीवन दर्शन में, जो राम के वनवास के समय, उनमें दिखता है। राम के वनवास का रूट विराट भारत को जोड़ता है। अयोध्या से शुरू होकर रामेश्वरम तक की यात्रा। श्रृंगवेरपुर, प्रयागराज, चित्रकूट, सारंगपुर, मैहर, जबलपुर, रामटेक, नागपुर, वर्धा, रावेरी, यवतमाल, श्रवणबेलगोला जैसे अनेक जगहों से होते हुए राम के वनवास का प्रसंग को समझना एक साथ धर्म, अध्यात्म, लोकजीवन, इतिहास, संस्कृति के निचोड़ को समझने जैसा है। हम और आप कल्पना करें कि राम के जीवन में कैसा क्षण आता है, एक दिन पहले तक उन्हें पता है कि कल राज्यारोहण होना है। उन्हें अवध का सम्राट बनना है, पर, अगले ही पल सूचना दी जाती है कि आपको वन जाना है। कहीं कोई प्रसंग नहीं मिलता कि अचानक आये विपरीत फैसले या निर्णय से राम थोड़े भी निराश होते हैं या गुस्से में आते हैं। जिस भाव से उन्होंने राजा बनने का प्रस्ताव स्वीकार किया था, उसी भाव से वनवास का प्रस्ताव भी। वनवास के कालखंड में राम का पौरूष, उनकी मर्यादा, दृष्टि, विवेक, सरोकार अपार विस्तार पाता है. राम का वनवास काल, भारत के एकीकरण का, मानव का सृष्टि के सभी प्राणियों से सखा भाव अपनाने और बरतने का अद्वितीय अध्याय है। राम इसी वनयात्रा के जरिये उत्तर से दक्षिण भारत को जोड़ते हैं। समाज का एकीकरण करते हैं।
इस वनयात्रा की शुरुआत ही केवट से उनकी मुलाकात और केवट संवाद से होती है। कितना अनूठा प्रसंग है राम-केवट संवाद। फिर बीच में वनवासियों के बीच जाना, रहना, शबरी से मिलना, उनके यहां खाना। गोस्वामी तुलसीदास ने तो इस वनवास प्रसंग का अनूठा वर्णन किया है। एक प्रसंग है कि राम जब वनवासियों के बीच जाते हैं तो गोस्वामीजी ने आदर भाव के लिए प्रणाम शब्द नहीं लाया है, बल्कि ‘जोहार’ शब्द लाया है। हिंदी इलाके में आदिवासी ‘जोहार’ कहकर अभिवादन करते हैं। वनवास के कालखंड में राम राजकुमार या राजपुत्र होने का कभी या कोई लाभ नहीं लेते। लाभ लेने की बात तो दूर, उसके बारे में सोचते तक नहीं। राम को वनगमन और यात्रा के दौरान अनेक प्रस्ताव मिलते हैं राजमहल में रहने के। वहीं रहकर वनवास काटने के प्रस्ताव पर राम खुद कुटिया बनाते हैं अपने लिए। घास पर सोते हैं। राम के जीवन में वनवास में अपार कष्ट के क्षण आते हैं। उनकी धर्मपत्नी का अपहरण हो जाता है। वह घबराते नहीं। चुनौतियों से पार पाने की कोशिश में लगते हैं, पर, इस संकट की घड़ी को भी व्यापक सरोकार के साथ अवसर में बदलते हैं। वह ना तो अपने अयोध्या के राज परिवार से, ना सीता के जनकपुर से और ना ही अपने ननिहाल कौशल राज से मदद मांगते हैं। वनवास काट रहे राम, वनवासी बनकर ही इसका रास्ता निकालते हैं। राजपुत्र या राजकुमार बनकर नहीं। अपनी सेना बनाते हैं। सेना बनाते हुए भी सृष्टि की समग्रता का ध्यान रखते हैं। सिर्फ इंसानी समुदाय से रिश्ता नहीं जोड़ते, अलग-अलग जीव और प्राणी जुड़ते हैं, उनसे। राम से जुड़कर वे स्वतंत्र नायक बनते हैं। उनमें भी देवत्व का भाव आता है। राम संकट की घड़ी में तपस्या या यज्ञ करके देवाताओं से भी गुहार नहीं लगाते। वह अपने विवेक से काम लेते हैं। राम को जब पता चल भी जाता है कि सीता का अपहरण रावण ने किया है, तो संदेश भेजते हैं। तुरंत आक्रमण नहीं करते। राम का धैर्य, संयम जवाब नहीं देता। इतनी विपत्ति में भी वह आक्रामक नहीं होते। रावण से युद्ध या रावण को मारना उनके पास आखिरी विकल्प होता है।
वह रावण से ज्यादा रावण के राक्षसत्व, अहंकार को मारते हैं। राम इस यात्रा के दौरान राज्यों को जीतकर भी अयोध्या के साम्राज्य का हिस्सा नहीं बनाते। राम इस यात्रा में कभी किसी समुदाय के रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप नहीं करते, ना ही उन पर अपनी परंपरा लादने की कोशिश करते हैं। वह वहां की परंपरा में रंग जाते हैं। सबसे सामाजिक और सांस्कृतिक सौहार्द्र का रिश्ता बनाते हैं। राज्य और साम्राज्य से ज्यादा मन जीतते हैं सबका। शासन और राज्य विस्तार का एक नयी अवधारणा देते हैं। दुनिया की महान सभ्यताओं ने अपने साम्राज्य का विस्तार किस रास्ते किया ? खून-खराबे से, मार-काट से, इंसानों, नगरों को खत्म कर। राम ने वनगमन के दौरान पैदल चलकर, प्रेम व्यवहार से अपने व्यक्तित्व और प्रभाव का विस्तार किया।
(लेखक राज्य सभा के उप सभापति हैं)