एलके सिंह, बलिया
जेपी सेवा के माध्यम से समाज में बुनियादी बदलाव लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रयोग किया। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, चंबल के बागियों के बीच सत्य अहिंसा का अलख, भूदान, ग्राम दान, जनेऊ तोड़ो आंदोलन, उनके सक्रिय जिंदगी के महत्वपूर्ण बिदु रहे। 1974 का संपूर्ण क्रांति आंदोलन उनके प्रयोगों की आखरी कड़ी बनी थी। तब उन्हें अपनें ही देश में जनतंत्र की लाश पर पनप रही तानाशाही के विरूद्ध मैदान संभालना पड़ा।
बलिया टुडे डेस्क : संपूर्ण क्रांति आंदोलन के प्रणेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण की 11 अक्टूबर को जयंती है। हम एक दिन पूर्व उनके पैतृक गांव सिताबदियारा में थे जहां 11 अक्टूबर 1902 को जेपी ने जन्म लिया था। हम सिताबदियारा के चैन छपरा में स्थित जेपी के उस क्रांति मैदान में भी पहुंचे जहां 1974 में ही लगभग 10 हजार लोगों ने जेपी के सांथ मिलकर जनेऊ तोड़ो आंदोलन का शंखनाद किया था। तब सभी ने अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प भी लिया था कि हम अब जाति प्रथा नहीं मानेंगे। उस आंदोलन का साक्षी वह पीपल का वृक्ष अब बुढा हो चला है, लेकिन उन दिनों की यादों को अपने अंदर समेटे अब भी खड़ा है। आज इस स्थल का कोई पूछनहार नहीं है। वहीं जेपी के उस जनेऊ तोड़ो आंदोलन में शामिल कई कद्दावर लोग आज खुद जातिवाद को बढ़ावा देते दिख रहे हैं। गांव में जेपी के संबंध में बातें करने पर कई लोग मिले जो अपनी बात संपूर्ण क्रांति आंदोलन सें शुरू किए और वर्तमान हालात पर पहुंच कर थम गए। उनके गांव के लोग मानते है कि देश में जेपी ही एक ऐसे योद्धा थे, जो आजादी का जंग तो लड़े ही, जब अपना देश आजाद हो गया तब भी उस महानायक को चैन नहीं मिला। आजादी के जंग में इस महानायक के कारनामों से कभी मुंबई के अखबारों में छपा कांग्रेस ब्रेन आरेस्टेड तो कभी हजारीबाग जेल से धोती की ही रस्सी बना जेल से भागने का शोर भी देश और विदेशों में हुआ, लेकिन अब जेपी के मुद्दों या उनके देखे सपनों से किसी भी सरकार को कोई सरोकार है। आज के परिवेश में ऐसा लगता है मानों जेपी की आत्मा चीख-चीख कर पूछ रही है कि देश के लिए मेरे देखे उन सपनों को क्या हुआ…इसका जवाब कहीं से नहीं मिल रहा।
आजादी के बाद के जेपी और संपूर्ण क्रांति
हम आजादी के पहले के जेपी की चर्चा छोड़, आजादी के बाद के जेपी पर मंथन करें तो यह बात सामने आती है कि आजादी के बाद की व्यवस्था से भी जेपी को बेतहासा दुख पहुंचा था। इसी कारण संपूर्ण क्रांति आंदोलन का जन्म हुआ, लेकिन दुखद यह कि वर्ष 1974 में जेपी जिस बारात लेकर सड़कों पर निकले थे, उसमें से अधिकांश बारातियों के समझ से संपूर्ण क्रांति परे थी। उनके गांव लाला टोला के ही निवासी दो बुजुर्ग ताड़केश्वर सिंह और सुदर्शन राम 70-75 वर्ष की अवस्था में भी जेपी की बात करने पर दम भरना शुरू कर देते हैं। उनलोंगों ने कहा कि जेपी सेवा के माध्यम से समाज में बुनियादी बदलाव लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रयोग किया। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, चंबल के बागियों के बीच सत्य अहिंसा का अलख, भूदान, ग्राम दान, जनेऊ तोड़ो आंदोलन, उनके सक्रिय जिंदगी के महत्वपूर्ण बिदु रहे। 1974 का संपूर्ण क्रांति आंदोलन उनके प्रयोगों की आखरी कड़ी बनी थी। तब उन्हें अपनें ही देश में जनतंत्र की लाश पर पनप रही तानाशाही के विरूद्ध मैदान संभालना पड़ा।
जेपी के साथ वालों ने भी जेपी को निराश किया
जेपी के सार्थक प्रयोगों से ही 1977 में सत्तापरिवर्तन भी हुआ। कहने मात्र की उनके मर्जी की सरकार बनी। इस अवधि में जेपी इंतजार करते रहे कि उनके अनुयायी संपूर्ण क्रांति के सपनों को साकार करेंगें लेकिन बाद के दिनों में नए शासकों ने भी उनकी जिंदगी में ही वही खेल शुरू कर दिया जिसके विरूद्ध 1974 में आंदोलन चला था। अंत समय में जेपी अपनों की पीड़ा से ही टूट चुके थे। अब जेपी कुछ करने की भी स्थिति में नहीं थे। समाज की बेहतरी का अरमान लिए जेपी 8 अक्टूबर 1979 को इस लोक से ही विदा हो गए। सिताबदियारा के लोगों को याद है उस दिन सिताबदियारा का कोना-कोना रो पड़ा था। उनके गांव के लोग कहते हैं…काश जनता के प्रतिनिधि आज भी जेपी की उस सोंच का भारत बना पाते।
दिनकर ने ऐसे किया है जेपी का वर्णन
जेपी की वीरता पर ही दिनकर ने लिखा-है जयप्रकाश जोकि, पंगु का चरण, मूक की भाषा है, है जयप्रकाश वह टिकी हुई जिस पर स्वदेश की आशा है। है जयप्रकाश वह नाम जिसे इतिहास समादर देता है, बढकर जिसके पदचिन्हों को उर पर अंकित कर देता है। कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है, ज्वाला को बुझते देख, कुंड में कूद स्वयं जो पड़ता है।
सिताबदियारा में दो भागों में बंट गई जेपी की अहमियत
एक समय वह भी था जब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व में मनाई जाने वाली जेपी जयंती पर पूरी दिल्ली सिताबदियारा में नजर आती थी। राष्ट्रीय स्तर के विमर्श हुआ करते थे। एक माह पहले से गांव तक जाने वाली सड़क को चमकाया जाने लगता था। गांव के सर्वाेदयी विचारधारा के लोग घर-घर से चंदा काट कर अतिथियों की सेवा का इंतजाम करते थे, लेकिन युवा तुर्क चंद्रशेखर के जाने के बाद जेपी की अहमियत उनके ही गांव में दो हिस्सों में बंट गई। अब दो स्थानों पर जयंती का आयोजन होेता है। एक बलिया यूपी की सीमा जयप्रकाशनगर में, जहां जेपी का पैतृक निवास है, और दूसरा छपरा बिहार की सीमा वाले लाला टोला में, जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सौगात देकर राष्ट्रीय स्मारक खड़ा किया है। इसके बावजूद सिताबदियारा में विकास की वह किरण नहीं दिखती। अस्पताल, विद्यालय, सड़कें आदि सभी सरकारी सुविधाएं बदहाल स्थिति में हैं। बड़ी बात यह कि जिस स्थान पर नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय स्मारक की सौगात दी है, उसी से सटे गरीबों की बस्ती में झोपड़ियों के अंदर से दर्द भरी दास्तान सुनाई देती है। उनकी सुनने वाला भी कोई नहीं है। इसके बावजूद बड़ा कार्यक्रम जिस ओर होता है, उस ओर दोनों तरफ की आबादी देश के नेताओं को सुनने के लिए उमड़ पड़ती है। इस साल कोरोना को लेकर दोनों तरफ कोई विशेष तैयारी तो नहीं है, लेकिन जेपी के सभी मुद्दों पर बहस का दौर उनकी जयंती पर फिर जारी है।