गंगा की जलधारा को अविरल बनाए रखने के ऋषि मुनियों के प्रयास का जीवंत प्रमाण है ददरी मेला। गंगा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया। कार्तिक पूर्णिमा पर भृगु क्षेत्र में गंगा-तमसा के संगम पर स्नान करने पर वहीं पुण्य प्राप्त होता है जो पुष्कर और नैमिषारण्य तीर्थ में वास करने, साठ हजार वर्षो तक काशी में तपस्या करने अथवा राष्ट्र धर्म के लिए रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने से मिलता है। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। प्रशासन ने ददरी मेले के आयोजन पर लगाया है प्रतिबंध। भृगु धरती के लोग मेला आयोजन के पक्ष में चला रहे हस्ताक्षर अभियान।
बलिया डेस्क : ऐतिहासिक ददरी मेला का आयोजन स्थगित होने के बाद जिला प्रशासन के इस निर्णय को लेकर विरोध के स्वर और भी मुखर हो चले हैं। राजनीतिक दल सपा ने जिला प्रशासन के इस निर्णय की निंदा की है, वहीं सामाजिक कार्यकर्ता जिला प्रशासन के इस फैसले के विरोध में शनिवार से हस्ताक्षर अभियान शुरू कर दिए। इस अभियान की शुरूआत वरिष्ठ साहित्यकार डा. जनार्दन राय ने की। उन्होंने कहा कि ददरी मेला महर्षि भृगु काल की परंपरा का जीवंत प्रमाण है। इसके आयोजन को रोककर जिला प्रशासन ने गलत किया है। जिस तरह से जनपद में अन्य आयोजन हो रहे हैं, कुछ प्रतिबंधों के साथ मेला लगाने की अनुमति भी जिला प्रशासन को देनी चाहिए।
इस मौके पर रंगकर्मी आशीष त्रिवेदी ने कहा कि मेले का आयोजन रोककर जिला प्रशासन तानाशाही का परिचय दे रहा है। कोरोना काल में अब ऐसा कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है। विद्यालय तक खोल दिए गए हैं। बाजारों में सैकड़ों लोग शाम को उमड़ रहे हैं, ऐसे में जिला प्रशासन को चाहिए कि वह कुछ प्रतिबंधों के साथ मेले के आयोजन की स्वीकृति प्रदान करे। सभासद विकास पांडेय लाला ने कहा कि यदि शीघ्र जिला प्रशासन अपना निर्णय वापस नहीं लेता तो बलिया की जनता उग्र हो जाएगी। छात्र नेता अचिंत्य सिंह ने कहा कि जिला प्रशासन जनता की बिना राय लिए अपने मन से किसी भी मामले में अपना निर्णय सुना दे रहा है। कोरोना काल में ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें स्वयं जिला प्रशासन भी कोविड-19 के नियमों का उसका उलंघन करते दिखा। कोरोना काल में ही जिला प्रशासन की ओर से गंगा यात्रा निकाली गई। कई गांवों में सभा भी की गई। युवा व्यवसायी सौरभ पाठक ने कहा कि यह मेला सदियों से व्यापार का केंद्र रहा है। इस मेले से छोटे व्यापारियों की जीविका चलती है, सभी के साथ जिला प्रशासन ने अन्याय किया है। कोरोना की आड़ में अधिकारियों की मनमानी से अब जनता त्रस्त हो चुकी है। इस मौके पर पूर्व चेयरमैन संजय उपध्याय, बीएचयू के पूर्व महामंत्री डा. सूबेदार सिंह, संतोष सिंह, जैनेंद्र पांडेय, उषा सिंह, रूपेश चौबे, मनन मिश्रा, विंध्याचल मिश्रा, विनायक मिश्रा, फुलबदन तिवारी अमित दुबे, सागर सिंह राहुल, चंदन ओझा, रजनीश पांडेय, विशाल प्रताप, रोहित चौबे, राहुल मिश्रा, अमूल सिंह, रवि मौर्य, कन्हैया अग्रवाल, मनीष पांडेय, रतन पांडेय, मधुकर चौबे, अंकित सिंह, रिंकू सिंह, विकास कुमार, आकाश सोनी, आदित्य तिवारी, अतुल पांडेय, जितेश पांडेय, बिट्टू पटेल, सुजीत तिवारी आदि ने भी जिला प्रशासन के निर्णय को गलत बताते हुए मेला आयोजन के पक्ष में अपना राग अलापा।
ऋषि मुनियों के प्रयास का जीवंत प्रमाण है यह ददरी मेला
बलिया के साहित्यकार शिवकुमार कौशिकेय ने अपने ब्लाॅग पर लिखा हैं..गंगा की जलधारा को अविरल बनाए रखने के ऋषि मुनियों के प्रयास का जीवंत प्रमाण है ददरी मेला। गंगा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया। कार्तिक पूर्णिमा पर भृगु क्षेत्र में गंगा-तमसा के संगम पर स्नान करने पर वहीं पुण्य प्राप्त होता है जो पुष्कर और नैमिषारण्य तीर्थ में वास करने, साठ हजार वर्षो तक काशी में तपस्या करने अथवा राष्ट्र धर्म के लिए रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने से मिलता है। यहां स्नान की परम्परा लगभग सात हजार वर्ष पुरानी है। जीवनदायिनी गंगा के संरक्षण और याज्ञिक परम्परा से शुरू हुए इस स्नान एवं मेले को महर्षि भृगु ने प्रारम्भ किया था। प्रचेता ब्रह्मा वीरणी के पुत्र महर्षि भृगु का मंदराचल पर हो रहे यज्ञ में ऋषिगणों ने त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की परीक्षा का काम सौंप दिया। इसी परीक्षा लेने के क्रम में महर्षि भृगु ने क्षीर सागर में विहार कर रहे भगवान विष्णु पर पद प्रहार कर दिया। दण्ड स्वरूप महर्षि भृगु को एक दण्ड और मृगछाल देकर विमुक्त तीर्थ में विष्णु सहस्त्र नाम जप करके शाप मुक्त होने के लिये महर्षि भृगु के दादा मरीचि ऋषि ने भेजा। इस विमुक्त भूमि में ही महर्षि भृगु की कमर से मृगछाल पृथ्वी पर गिर गई तथा इसी गंगा तट पर उनके सूखे डंडे से कोपलें फूट पड़ी थीं। तब महर्षि ने यहीं तपस्या प्रारंभ कर दी। कुछ समय बाद जब महर्षि भृगु को अपनी ज्योतिष गणना से यह ज्ञात हुआ कि कुछ काल खण्डों के बाद यहां गंगा नदी सूख जाएगी तब उन्होंने अपने शिष्य को उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित होने वाली सरयू नदी की धारा को यहां लाकर गंगा नदी के साथ संगम कराने का आदेश दिया। जब महर्षि भृगु के शिष्य ने अपने साथियों सहित सरयू नदी की धारा को अयोध्या से लाकर गंगा नदी से मिलाया तो घर्र-घर्र-दर्र-दर्र की आवाज निकलने लगी तब महर्षि भृगु ने यहां सरयू नदी का नाम घार्घरा और अपने शिष्य का नाम दर्दर मुनि रख दिया। उस काल खण्ड में यह बहुत बड़ा काम था अपने शिष्य के द्वारा दो नदियों के संगम कराने से हर्षित भृगु जी ने एक विशाल उत्सव, यज्ञ करवाया जिसमें सारे एशिया महाद्वीप के लोगों ने भाग लिया। तब सारे लोगों ने इस संगम में स्नान किया और इस समारोह में भाग लिया। यह उत्सव महीनों चलता रहा। आज का ददरी मेला उसी परम्परा में हजारों वर्षो से चलता आ रहा है। त्रेता युग (रामायण काल) एवं द्वापर युग (महाभारत काल) में भृगु क्षेत्र का यह भू-भाग सूर्य मण्डल के उत्तर कोशल राजवंश के अवध काशी एवं मगध वैशाली राज्यों का सीमांत क्षेत्र था। जिस पर महर्षि भृगु की शिष्य परम्परा के संयासियों का अधिकार था। प्रतिवर्ष होने वाले यज्ञ और ददरी मेले में इन चारों राज्यों के राजा व प्रजा आती थी। इन राजवंशों और भूपति परिवारों द्वारा अन्न क्षेत्र चलाया जाता था। इसका उल्लेख विभिन्न ग्रंथों में मिलता है। महर्षि भृगु ने आज से सात हजार साल पहले गंगा की धारा को अविरल बनाये रखने के लिए जो प्रयास किया उसी कारण आज भी गंगा नदी यहां से लेकर बंगाल की खाड़ी तक प्रवाहमान है और इन क्षेत्रों में भूगर्भ जल एवं पर्यावरण संरक्षित है।