बिहार चुनाव में NDA को भले ही पूर्ण बहुमत मिली है, लेकिन 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार की जमीन खिसकते हुए दिख रही है। उनकी जगह राजद के तेजस्वी पिछड़े वर्ग में मजबूत नेता बन कर उभरे हैं। JDU को 43 सीटें मिली हैं, वहीं राजद को 74 सीेटें। NDA को 125 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली हैं।
- एलके सिंह
बलिया टुडे डेस्क : बिहार विधान सभा चुनाव संपन्न हो चुका है। सभी 243 सीटों का परिणाम घोषित हो गया है। NDA को 125 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली हैं। यहां तेजस्वी यादव की RJD 75 सीटों के साथ बड़ी पार्टी बन गई है। वहीं भाजपा 74 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनी है। NDA में शामिल भाजपा को 74, JDU को 43, VIP को चार और HAM को चार सीट पर जीत मिली है। महागठबंधन में शामिल RJD को 75, Congress को 19, CPI ML को 12, CPI एवं CPM को दो-दो सीटों पर जीत मिली है। इस चुनाव में AIMIM ने 5 तथा लोजपा व बसपा को एक-एक सीट पर संतोष करना पड़ा है। एक सीट निर्दल उम्मीदवार के खाते में गई है। बिहार चुनाव में NDA को भले ही पूर्ण बहुमत मिली है, लेकिन 15 साल तक मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार की जमीन खिसकते हुए दिख रही है। उनकी जगह राजद के तेजस्वी पिछड़े वर्ग में मजबूत नेता बन कर उभरे हैं।
नीतीश के निजी वोटर हुए उनसे दूर
इस चुनाव में नीतीश के निजी वोटर उनसे दूर हुए हैं। तेजस्वी कम पढ़े-लिखे होने के बाद भी नीतीश कुमार से आगे निकल गए। सभी मानते हैं कि नीतीश कुमार तब तक पिछड़े वर्ग के दिलों में बसते थे, जब तक वह भाजपा से अलग थे। भाजपा के साथ होने के बाद पिछड़े वर्ग के उनके निजी वोटर उनसे कट कर राजद से जुड़ गए। नीतीश को यह बात समझ में नहीं आई कि उच्च वर्ग के वोटर भाजपा के हो चुके हैं, जबकि उनकी अच्छी पैठ पिछड़े वर्ग में थी, उन्हें सहेज कर रखने में वह विफल हो गए। भाजपा ने अंदरखाने से दांव चलकर उनकी राजनीति पर प्रहार किया है। नीतीश कुमार गठबंधन के समझौते के मुताबिक भले ही मुख्यमंत्री बन रहे हैं, लेकिन उनका मन अंदर से इस बात के लिए संतुष्ट नहीं होगा। इस बात को वह नहीं भूल पाएंगे कि वह खुद के दम पर नहीं, दूसरे के दम पर बिहार के मुख्यमंत्री हैं।
भाजपा के दबाव में रहेंगे नीतीश
मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार को भाजपा के दबाव में काम करना होगा। ऐसे में वह पूरी तरह भाजपा का हो जाएंगे। नीतीश कुमार को यदि अपनी राजनीतिक जमीन बचाए रखनी है तो NDA की जीत के बाद भी उन्हें भाजपा से अलग होना चाहिए। कर्सी की मोह में यदि वह ऐसा नहीं करते हैं तो पिछड़े वर्ग से उनका नाता पूरी तरह टूट जाएगा। इसलिए कि उच्च वर्ग उन्हें अपना नेता कभी स्वीकार नहीं करेगा। चुनाव का रिजल्ट घोषित होने के बाद नीतीश कुमार को भी इस बात का एहसास हो रहा होगा कि उन्होंने क्या खोया..क्या पाया। बिहार में इस बात को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि नीतीश कुमार ने देश में बिहार की एक अलग छवि पेश की है। विकास भी किया है, लेकिन अब की राजनीति में विकास के साथ-साथ जातिगत गणित भी ज्यादा मायने रखती हैं। वोटरों के दिमाग में विकास की बातें बाद में आती हैं, पहले यह देखा जाता है कि कौन सा दल, किस जाति का पक्षधर है। इसी आधार पर वोट की गणित सेट होती है। बिहार के चुनाव में ऐसा ही हुआ है।
कांग्रेस ने डुबो दी तेजस्वी की नैया
बिहार में यदि राजद के तेजस्वी मुख्यमंत्री नहीं बने तो इसकी देन कांग्रेस है। यूपी में ऐसी गलती एक बार सपा के अखिलेश यादव भी कर चुके हैं। वही गलती तेजस्वी ने भी बिहार में की। कांग्रेस को 70 सीटें देकर तेजस्वी, अपने पैरों पर खुद ही कुल्लाड़ी मार लिए। उन्हें कांग्रेस को 70 सीटें देने के बजाय, उनकी हैसियत के मुताबिक ही सीटें देनी चाहिए थी। कांग्रेस को इतनी सीटें देने से पहले इस बात का आकलन करना चाहिए था कि बिहार में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन कितनी मजबूत है। 70 सीटें देने के बाद भी कांग्रेस मात्र 19 सीटों पर ही सिमट गई। तेजस्वी के हाथ से मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने का सबसे बड़ा कारण यही रहा। यूपी में 2017 के विधान सभा चुनाव में सपा के अखिलेश यादव ने भी इसी तरह का काम किया था। 403 सीटों में से कांग्रेस को 105 सीटें दे दी थी। खुद 298 पर चुनाव लड़ा था। उस वक्त भी कांगेस मात्र 7 सीटो पर सिमट गई। खमियाजा सपा का भुगतना पड़ा।
आगे बिगड़ सकते भाजपा के बोल
अभी के समय में बिहार में भले की नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन रहे हैं, लेकिन आगे चलकर नीतीश के प्रति भाजपा के बोल बिगड़ भी सकते हैं। भाजपा के कई नेताओं को इस बात का मलाल है कि उनकी सीटें ज्यादा होने के बाद भी कम सीटें पाने वाले नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन रहे हैं। अभी वे कुछ नहीं बोल रहे हैं लेकिन आगे की राजनीति में संभव है अंदरखाने से भाजपा अपने कुछ बड़बोले नेताओं को आगे कर दे, और वे नीतीश कुमार पर प्रहार शुरू कर दें। ऐसा पहले हुआ भी है। उसी कारण नीतीश कुमार भाजपा से अलग भी हुए थे। उसके बाद वह राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। राजद से भी जब उनका उचित सामंजस्य नहीं बैठा तो वह दोबारा भाजपा की ओर झुके। तब के हालात ऐसे थे कि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत थी। दोनों तरफ से समझौता पहले इस बात पर हुआ कि अब कोई भी भाजपा नेता गलत बयानबाजी नहीं करेगा। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का हस्तक्षेत ज्यादा काम किया। उसके बाद से नीतीश और भाजपा का सुर-ताल एक रहा, लेकिन तब सीटों को लेकर बात कुछ और थी, अब बात कुछ और है। तब नीतीश कुमार बड़े दल के नेता थे, अब भाजपा उनसे ज्यादा बड़ी है। ऐसी स्थति में एक परिवार भी नहीं चल पा रहा, वह तो सरकार है। आगे मालिक जय श्रीराम।
योगी ने भी बिगड़ा नीतीश का खेल
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बिहार में कम सीटें मिलने के पीछे कुछ कारण यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदत्यिनाथ भी हैं। सभी को पता है के नीतीश भाजपा वाली सोच नहीं रखते। वह सभी संप्रदाय को साथ लेकर चलने वाले नेता हैं। फिर यह बात उन्हें क्यों समझ में नहीं आई कि बिहार में योगी का चुनाव प्रचार करना, उनके लिए फायदेमंद नहीं नुकसानदायक होगा। याद होगा इसी चुनाव में बिहार के कटिहार में भाजपा प्रत्याशी के लिए प्रचार करते समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने कहा था कि विरोधी दल घुसपैठियों को सहयोग देते हैं, बहुत ही जल्द घुसपैठियों को बाहर निकाला जाएगा। यह बात नीतीश कुमार को अच्छी नहीं लगी थी। उन्हें उसी वक्त इस बात का एहसास हो गया कि राजनीति का खेल भाजपा के चलते बिगड़ रहा है। तभी किशनगंज में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए बिहार के मुखिया नीतीश कुमार ने कहा था, वह कौन दुष्प्रचार करता है, फालतू बात करता है, यहां से कौन किसको देश से बाहर करता है। ऐसा किसी में दम नहीं है। नीतीश तो यहां तक बोल गए कि कुछ लोग चाहते हैं, समाज में हमेशा रगड़ा–झगड़ा चलता रहे। योगी के उस कथन को दबाने के लिए ही नीतीश अपनी अंतिम सभा में बोल गए..यह मेरा अंतिम चुनाव है, अंत भला तो सब भला। फिर भी वह पिछडे़ वर्ग की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं कर पाए। इसका लाभ राजद को हुआ।
यूपी पर क्या असर डालेगा बिहार चुनाव
बिहार में NDA की सरकार भले ही बन रही है लेकिन अधिकांश सीटों पर मिली टक्कर यह बताती है कि NDA के प्रति पिछड़े वर्ग में नाराजगी है। संभव है भाजपा इस पर गहन मंथन करे। बिहार की तरह पिछड़े वर्ग की यूपी में भी गोलबंदी शुरू हो चुकी है। बिहार विधान सभा चुनाव में तेजस्वी को भाजपा की ओर से जंगलराज का युवराज कहा गया। यहां सपा के युवराज अखिलेश यादव हैं। 2022 में यूपी में विधान सभा के चुनाव होने हैं। पिछडे वर्ग में अखिलेश यादव सबसे मजबूत नेता हैं। भाजपा केवल उच्च वर्ग की पार्टी बनते दिख रही है। अभी कुछ दिनों पहले बसपा सुप्रीमो मायावती का कनेक्शन भी भाजपा से जुड़ते देखा गया। ऐसे में भाजपा से नाराज दलित वर्ग भी संभव है मायावती के बाद अखिलेश यादव में ही अपनी भलाई देखे। यूपी में सुहलदेव पार्टी के ओमप्रकाश राजभर भी भाजपा से अलग होने के बाद अपने समाज को लेकर लगातार भाजपा पर प्रहार करते दिख रहे हैं। सपा की ओर ब्राम्हणों का भी झुकाव देखा जा रहा है। लंबे समय से किनारे पर खड़ी कांग्रेस भी प्रियंका गांधी के माध्यम से अपनी जमीन मजबूत करने लगी है। प्रियंका गांधी यूपी के हर छोटे, बड़े मामलों में दखल दे रही हैं। आगे के राजनीतिक समीकरण चाहे जो हों, लेकिन वर्तमान हालात देख यही कहा जा सकता है कि 2022 में यूपी विधान सभा चुनाव की की जंग भी भाजपा के लिए आसान नहीं होगी।
(लेखक बलिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं।)