कृषि कानून के विरोध में किसानों के आंदोलन को कई राजनीतिक दलों में अपना समर्थन दे रखा है। राष्ट्रीय स्तर पर भी इस मुद्दे को लेकर खूब बहस हो रही है। सोमवार को सभी जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन किया जा रहा था। जिला और विधान सभा स्तर के विपक्षी दल के नेेता अपने कुछ कार्यकर्ताओं के साथ केंद्र सरकार पर हमला बोल रहे थे। नारेबाजी हो रही थी। कृषि कानून वापस लो, वापस लो, वापस लो। मोदी तेरी तानाशाही, नहीं चलेगी, नहीं चलेगी। यह सब देख मनोहर हैरान थे। वह अपने मित्र मनराखन से पूछ बेठे, भइया..बलिया में किसान से ज्यादा नेता ही सड़कों पर क्यों दिखाई दे रहे हैं। इसमें तो किसानों को ही ज्यादा संख्या में आगे आना चाहिए। इसलिए कि किसानों के हित के लिए यह आंदोलन हो रहा है। इस पर मनराखन ने जवाब दिया..भाई ई सब लोग किसानों की आड़ में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में लगे हैं, किसानों को तो पता है कि सरकार चाहे किसी की भी रहे, उसे मेहनत करके ही खाना है। गांव के सेठ को ही अपना अनाज बेचना है। उसी से उधार लेकर घर भी चलाना है। ऐसे किसान भला क्या समझें। मैने तो सुबह में देखा…एक नेताजी के खास आदमी पुलिस थाने में फोन लगाकर बोल रहे थे..थानेदार साहब, नेताजी को कब गिरफ्तार करने आएंगे। इस पर मनोहर पूछ बैठे..भइया इससे उनको क्या फायदा होगा। आसपास में बदनामी भी होगी। लोग बात करेंगे कि नेताजी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। घर से निकलने नहीं दिया। इस पर मनराखन बोले..भाई तुम्हारा मन राजनीतिक नहीं है न, इसीलिए अंदर की बात को तुम नहीं समझ पा रहे हो। दरअसल बात ई है कि नेताजी जब गिरफ्तार होंगे या घर में नजरबंद होंगे तो मीडिया वाले उसे प्रमुखता से छापेंगे, टीवी पर चलाएंगे। यह संदेश उनके शीर्ष नेताजी तक जाएगा। उनके नेताजी के दिलों में स्थान बनेगा। अगामी विधान सभा चुनाव में वह मजबूती से टिकट भी मांग पाएंगे। यह कहकर कि मै पार्टी के सभी प्रमुख आंदोलनों में बढ़-चढ़ का हिस्सा लिया हूं। साक्ष्य के रूप में वह अखबारों की कटिंग भी रख सकते हैं। इतना सुनने के बाद मनोहर को अंदर की राजनीतिक बात समझ में आई।
कृषि कानून से क्या नुकसान, इसे भी समझा दें
मनोहर ने मनराखन से दूसरा सवाल किया..भइया कृषि कानून से किसानों को क्या नुकसान है, यह बात भी समझ में नहीं आ रही है। इस पर मनराखन कुछ ज्यादा ही खुश हुए। वह अब एक बड़े कृषि विशेषज्ञ की तरह बोलने लगे..भाई मोटे में इतना ही समझ लो कि जैसे आलू अभी के समय में किसानों के यहां 30 रुपये किग्रा थाेक भाव में मिल रहा है। कोई सेठ किसी किसान से दो किग्रा आलू खरीदता है तो उसे 60 रुपये देने पड़ते हैं। इस दो किग्रा आलू को वह सेठ चिप्स बनाकर, 50 ग्राम के हिसाब से पैकेट में पैक कर देता है। उसे पांच रुपये प्रति पैकट के हिसाब से बिक्री कर देता है। इस दो किग्रा आलू में 40 पैकेट तैयार करने मे मान लो कुल 100 रुपये खर्च आता है तो भी वह 100 रुपये का मुनाफा आसानी से कमा लेता है। सोचो बड़े पैमाने पर ऐसा जोड़ कितने करोड़ में होगा। कृषि कानून को लेकर ऐसी ही कुछ बातों को लेकर विरोध हो रहा है, लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि किसानों के उत्पाद का उचित मूल्य कैसे मिले, किसान अपने उत्पाद को अन्य रूप में तब्दील कर किसी कंपनी की तरह बाजारों में कैसे बिक्री करें, इस दिशा में न तो सरकार बात कर रही है, न ही विपक्ष के लोग। किसानों की आड़ में सभी अपनी जमीन मजबूत करने में जुटे हैं।