संतों के आदेश का आधुनिक युग में लोग करते है पालन। चुपके से भी किसी ने किया प्रयास तो हो गया उसका नाश। बलिया के नगर पंचायत चितबड़ागांव ऐसा बाजार है जहां आज भी मांस, मछली व अंडा नहीं बिकता है।
बलिया : इस आधुनिक युग में लोगों के बीच मांस, मदिरा का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है वहीं नगर पंचायत चितबड़ागांव ऐसा बाजार है जहां आज भी मांस, मछली व अंडा नहीं बिकता है। अगर किस को खाना भी होता है तो वह दूर के बाजार में जाकर खाता है। ऐसा नहीं है कि बाजार में लोगों ने बेचने का प्रयास नहीं किया लेकिन इस तरह का धंधा करने वालों को व्यापक क्षति उठानी पड़ी। यह देखते हुए आज भी कोई चितबड़ागांव के अंदर मांस, मछली व अंडा बेचने का धंधा कर ही नहीं सकता है। सैकड़ों साल पूर्व संतों के आगमन के बाद ही यह क्रम शुरू हुआ। सत्रहवीं सदी के प्रारंभ में चितबड़ागांव में स्थापित निर्गुण मतावलंबी संतों की एक शाखा बावरी पंथ की स्थापना हुई। जो निर्गुण मतावलंबियों की संत बावरी साहिबा के नाम पर चला। इस मठ को रामशाला नाम दिया गया। उस कालखंड में चितबड़ागांव क्षेत्र के लोग मांस, मछली व मदिरा आदि का धड़ल्ले से सेवन कर रहे थे। इसके पीछे कारण न सिर्फ समाज में अराजकता थी बल्कि शिक्षा दीक्षा संस्कार का घोर अभाव था। ऐसे समय में बावरी पंथ के साधकों का सबसे बड़ा दायित्व यह रहा कि क्षेत्र को मांस व मछली आदि के सेवन से किस प्रकार मुक्त किया जाए। क्षेत्र में आपसी सौहार्द, धार्मिक उल्लास और सुसंस्कार की स्थापना हो सके। चितबड़ागांव राम शाला की गद्दी पर समय-समय पर विराजमान संत भीखा साहब, संत गुलाल साहबख, संत देवकीनंदन साहब व संत हरलाल साहब महान संतों की साधना से पावन हुई धरती पर संतों के उपदेश को लोगों ने ईश्वर का आदेश माना। तभी से चितबड़ागांव और आसपास के गांवों में मांसाहार का सेवन पूरी तरह बंद हो गया। कौशिक क्षत्रिय बहुल चितबड़ागांव ने संतों का अनुयाई बनकर ना सिर्फ चलने का संकल्प लिया बल्कि चलकर इस तरह दिखाया कि वह परंपरा अक्षुण्ण बन गई। 17वीं व 18 वीं इन दो सदियों में राम शाला की गद्दी पर बैठे हुए संतों की बात देववाणी मानी जाती थी। रामशाला पर खड़े होकर कोई भी व्यक्ति झूठी कसम खाने का साहस नहीं जुटा पाता है। गुरु गद्दी का यह फरमान की चितबड़ागांव का हिंदू समुदाय विशेष रूप से कौशिक क्षत्रिय वंश यदि मांस अंडा मछली पालन करता है खाता है या घर में बनाता है तो उसका विनाश तय है। आज भी लोगों यह आस्था व विश्वास का विषय बना हुआ है यही कारण है कि चितबड़ागांव जनपद नहीं प्रदेश नहीं बल्कि शायद विश्व का अकेला ऐसा बाजार होगा जहां मांस, मछली, अंडा मुर्गा, बाजार में कहीं बिकता।
परंपरा का मुस्लिम वर्ग भी करते पालन
चितबड़ागांव पूरी जनसंख्या का लगभग 15 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। ये लोग बाहर से मीट मछली लाते हैं घरों में बनाते हैं। हिंदू समुदाय के भी कुछ लोग मांसाहार का सेवन करते हैं लेकिन वह बाहर ही जाकर। घरों में न बनता है और न तो बाजारों, गलियों में मोहल्लों में बिकता ही है। नगर क्षेत्र के हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय के लोग इस महान और प्राचीन परम्परा का स्वेच्छा से पालन एवं संरक्षण करते हैं।
जिसने भी किया प्रयास वह हुआ बर्बाद
नगर के ही एक ऊंचे परिवार के लोगों ने इस परंपरा को झूठा मानते हुए मुर्गी पालन का धंधा कर लिया। कुछ दिनों तक ठीक ठाक चला लेकिन एकाएक ऐसी बीमारी फैली की सभी मुर्गियां अचानक मर गईं। इसी बीच उस परिवार में जवान लड़के ने भी दम तोड़ दिया। इसके बाद वह रामशाला पर गए और माथा पटककर क्षमा मांगने लगे। इसके बाद उनका सर्वनाश होने से बचा। कस्बे का ही एक परिवार चुपके से मांस बेचता था। एक माह के भीतर उसके दो पुत्रों की बीमारी से मौत हो गई। इसने भी रामशाला में जाकर समाधियों पर त्राहिमाम किया। इसके बाद उसने कभी न बेचने की कमस खाई। इसके बाद उसने घूम-घूमकर चारों तरफ प्रचार किया कि इस रामशाला के संतों की वाणी का जो तिरस्कार करेगा उसका सर्वनाश हो जाएगा।