बलिया : त्रिस्तरीय ग्राम पंचायत चुनाव का बिगुल बज चुका है। मंगलवार को आरक्षण की सूची भी जारी हो गई। इसके बाद कई पंचायतों का राजनीतिक खेल बिगड़ चुका है। आरक्षण स्पष्ट होने के बाद प्रधान बनने की मंशा पाले बहुत से उम्मीदवार मायूस हुए हैं। वे लंबे समय से गांव में चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटे थे। आरक्षण की सूची आने के बाद बुधवार को बैरिया के एक पंचायत में जाना हुआ। वहां पीपल के पेड़ के नीचे कुछ बुजुर्गाें की बैठकी चल रही थी। गांव की सरकार को लेकर सभी लोग चर्चा में मशगूल थे। यहां पहले सामान्य जाति के प्रधान थे, आरक्षण आने के बाद यहां की सीट अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व हो गई है। इस वजह से उनकी और अन्य उम्मीदवारों की पूरी राजनीति ही पलट गई है। गांव की उस चर्चा में शामिल होने पर एक बुजुर्ग शिवजी बोले.भइया फलां के पक्ष में इस बार अच्छा माहौल था, लेकिन आरक्षण ने उनकी तैयारी पर पानी फेर दिया। इस पर उसी गांव के बहोरन बोले.अरे भाई तैयारी पर कवनो पानी नइखे फिरल, आरक्षण में सीट बदल गइल, फिर भी प्रधानी उहे लड़िहें। मतलब केवल चेहरा बदल जाएगा। धन खर्च से लेकर गांव की गोलबंदी सहित अन्य राजनीतिक सेटिग भी वही करेंगे, जो लंबे समय से चुनाव की तैयारी कर रहे थे। यही स्थिति उन सभी ग्राम पंचायतों की है, जहां आरक्षण के चलते संभावित उम्मीदवारों की पूरी सेटिग फेल हो गई है।
पांच साल एकतरफा चली गांव की सरकार
इस चर्चा से बाहर निकल अन्य पंचायतों की शोर सुनने पर बहुत से लोग ऐसे मिले जो पंचायतों की योजनाएं और विकास के सिस्टम से काफी दुखी थे। बहुत से लोगों का कहना था कि ग्रामीण भारत की तरक्की के लिए सरकारें तमाम योजनाएं इन्हीं पंयायतों के जरिए चलाती हैं। 14वां वित्त, मनरेगा और स्वच्छ भारत मिशन का वार्षिक औसत निकाला जाए तो एक पंचायत को लगभग 20 लाख से 30 लाख रुपये मिलते हैं। इन्हीं पैसों से पानी की व्यवस्था, घर के सामने की नाली, सड़क, शौचालय, स्कूल का प्रबंधन, साफ-सफाई और तालाब बनते हैं, लेकिन पंचायत स्तर पर ग्रामीणों को बहुत कुछ आज भी उपलब्ध नहीं है। बहुत सी योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती रहीं, और जनता विवश हाल में चुपचाप देखती रही। आज जो लोग चुनाव मैदान में हैं वे भी पांच साल तक जनता के किसी भी मुद्दे को लेकर अपनी आवाज बुलंद नहीं किए।