युवा तुर्क के नाम से मशहूर रहे दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की आज पुण्यतिथि है। चंद्रशेखर से जुड़े कई ऐसे किस्से हैं, जिन्हें आज भी सुनाया जाता है। कहा जाता है कि वो पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने राज्य मंत्री या केंद्र में मंत्री बने बिना ही सीधे प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। वह एक प्रखर वक्ता, लोकप्रिय राजनेता, विद्वान लेखक और बेबाक समीक्षक भी थे। वर्ष 2006 में चंद्रशेखर ने आखिरी बार बलिया की धरती पर अपना पांव रखा। उनकी 13वीं पुण्य तिथि पर उनके राजनीतिक किरदार को याद करता आज का यह अंक।
बलिया डेस्क : भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली और संसदीय राजनीति में अटूट श्रद्धा रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की आज पुण्य तिथि है। युवा तुर्क के नाम से विख्यात पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का जन्म 1927 में बलिया के इब्राहिमपट्टी गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। चंद्रशेखर ने हमेशा शक्ति और पैसे की राजनीति को दरकिनार कर समाजिक बदलाव और लोकतांत्रिक मूल्यों की राजनीति पर जोर दिया। चंद्रशेखर के राजनीतिक किरदार से अवगत लोग मानते हैं कि अब की राजनीति में चंद्रशेखर के रास्ते चलना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है। चंद्रशेखर वह ऐसे राजनेता थे जो कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल के अभिन्न अंग रहते हुए भी उन्होंने अपने युवा साथियों के माध्यम से देश को समाजवादी दिशा में ले जाने का प्रयास किया। जब उन्हें लगा कि कांग्रेस को कुछ निरंकुश ताकतें अपने हिसाब से चलाना चहती हैं तो वे बिना वक्त गंवाए देश को उबारने के लिहाज से जयप्रकाश नारायण के साथ आकर खड़े हो गए। इसकी कीमत उन्हें जेल में नजरबंदी के रूप में चुकानी पड़ी। इसके बावजूद भी वे झुके नहीं बल्कि इससे समाजवाद के प्रति उनकी धारणा और बढ गई।
जेपी के जाति तोड़ो आंदोलन का किया था संचालन
सिताबदियारा के चैनछपरा में आज भी खड़ा वह बुढ़ा पीपल का वृक्ष इस बात का गवाह है, जब जेपी के नेतृत्व में 1974 में जनेऊ तोड़ो..जाति प्रथा मिटाओ आंदोलन का शंखनाद हुआ था। तब के बुजुर्गों को याद है वह दिन जब माइक पर चंद्रशेखर उस आंदोलन की सभा का संचालन कर रहे थे। तब जेपी सहित सिताबदियारा और आसपास के लगभग 10 हजार लोग उस आंदोलन का हिस्सा बने थे और अपना जनेऊ तोड़ यह संकल्प लिया था कि वे उस दिन से जाति प्रथा को नहीं मानेंगे। हालांकि उस आंदोलन का असर लंबे समय तक नहीं रहा। बाद के नेता जेपी के विचारों के साथ भले ही थे, लेकिन उन्होंने देश में जातिवादी हवा बढ़ाने में कोई कमी रखी। नतीजन जेपी के जाति तोड़ो का वह नारा हवा में ही तैरता रहा और देश की राजनीति जाति और धर्म की ओर बढ़ती गई।
नेताओं का मान कम होने पर यह थे चंद्रशेखर के विचार
चंद्रशेखर स्वयं एक नेता थे लेकिन अपने कथन में राजनीति के बदलते स्वरुप पर बेबाक बोलते थे। राजनीति में राजनेताओं के मान कम होने से एक सवाल पर उनके विचार कुछ इस तरह के थे…आज राजनीति के दो उद्देश्य रह गए हैं। पहला समाज में लोगों का समर्थन कैसे मिले, कुछ भी, कैसे भी, चाहे गलत करके या सही करके। दूसरा पैसा कैसे मिले। आज की राजनीति भी इन्हीं दो चीजों पर आधारित है, पैसे पर और असरदार लोगों के समर्थन पर। वैसे मेरा मानना है कि यह न किया जाए तो भी उससे उतना ही लाभ मिलता है जितना और किसी तरीके से। राजनीति में भटकाव की इस प्रक्रिया को एक व्यक्ति नहीं चला रहा है। जब हम जनता से दूर हो जाते हैं, उनकी समस्याओं पर कम ध्यान देते हैं, ऐसे में गैर राजनीतिक गतिविधियां चलने लगती हैं। गांधी जी ने कहा था कि राजनीति सिर्फ भाषण देना नहीं है, कुछ रचनात्मक कार्य भी होने चाहिए। अब कौन करता है यह सब, करता भी है तो गैर सरकारी संस्था चलाता है। एनजीओ काे चलाने के लिए वह सारे तिकड़म चाहिए जो सरकारी संस्थाओं में चलते हैं। यदि इसे अस्वीकार कर दीजिए तो सबसे गए गुजरे आदमी हैं हम। हम राजनीति नहीं, राजनीति की सौदागिरी का काम करते हैं।
जन्म से लेकर निधन तक का सफर
-17 अप्रैल 1927 को बलिया के एक सीमांत किसान सदानंद सिंह के घर जन्म।
-1945 में श्रीमती द्विजा देवी से विवाह।
-1949 में बलिया के प्रतिष्ठित सतीश चंद्र कॉलेज से स्नातक की उपाधि।
-1951 में इलाहाबाद विश्व विद्यालय से राजनीति शास्त्र में परास्नातक की उपाधि।
-1951 में आचार्य नरेंद्रदेव के आवाहन पर अपना शोध कार्य छोड़, बलिया जिला सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री का कार्य संभाला।
-1955 में प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी के महामंत्री बने।
-1962 में प्रज्ञा सोशलिस्ट पार्टी की ओर से राज्यसभा के लिए चुने गए।
-1964 में अशोक मेहता के रचनात्मक विपक्ष का समर्थन करने के कारण पार्टी से निष्कासन के बाद कांग्रेस में शामिल हुए।
-1967 में कांग्रेस संसदीय दल के मंत्री चुने गए।
-1969 में और उसके बाद भी लगातार कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य रहे।
-1969 में ही कांग्रेस सिंडीकेट के विरुद्ध व्यापारिक एकाधिकार के विरुद्ध रामधन, कृष्णकांत आदि साथियों के साथ संघर्ष का बिगुल फूंका। समाचार पत्रों द्वारा श्री चंद्रशेखर को ‘युवातुर्क’ की उपाधि।
-1971 के चुनावों में इंदिरा गाँधी की ओर से जबरदस्त चुनाव प्रचार, चुनावों में इंदिरा गाँधी की अभूतपूर्व सफलता, श्री चंद्रशेखर द्वारा मंत्री पद का अस्वीकार।
-1972 इंदिरा जी के द्वारा चुनावी वादों को पूरा न किये जाने से कुछ अनबन, इंदिरा जी व हाई कमान विरोध के बावजूद शिमला में कांग्रेस चुनाव समिति के सदस्य के रूप में चुने गए।
-जून 25,1975 को आपातकाल में कांग्रेस का महासचिव होने के बावजूद गिरफ्तार, कारण जयप्रकाश नारायण का समर्थक होने का शक। 19 महीने जेल में।
-1977 में पहली बार बलिया की लोकसभा सीट से चुने गए। मोरारजी देसाई की जनता सरकार में जेपी के आग्रह के बावजूद मंत्री पद का अस्वीकार। किंतु जेपी के आदेश पर नवगठित जनता पार्टी के अध्यक्ष का पद स्वीकार किया। तभी से उनके लिए ‘अध्यक्षजी’ का संबोधन प्रचलित।
-1983 में भारत की 4260 किलोमीटर की पदयात्रा। दक्षिण भारत और पश्चिम भारत से भारत यात्रा कार्यक्रम को भरपूर समर्थन।
-1990 नवंबर 10, को भारत के प्रथम समाजवादी प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री पर अल्पावधि के कार्यकाल में कई मोर्चों पर महत्वपूर्ण फैसले और पहल। मसलन- भारत की आंतरिक अशांति, अयोध्या विवाद, कश्मीर समस्या, पंजाब समस्या 1991 का तेल संकट।
-11 मार्च 1991 को त्यागपत्र किंतु राष्ट्रपति के अनुरोध पर 20 जून 1991 तक प्रधानमंत्री पद पर रहे।
-1992 संसद में और संसद के बाहर भी उदारीकरण की नीतियों और डंकल प्रस्ताव का जबरदस्त विरोध।
– 12 दिसबंर 1995 को सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार।
-2000 में पाँच पूर्व प्रधानमंत्रियों के साथ मिल उदारीकरण की नीतियों की समीक्षा का प्रयास।
-2004 के चुनावों में अंतिम बार बलिया के लोकसभा सीट से निर्वाचन, 1977 से लगातार (1984 को छोड़कर) सांसद रहे।
-8 जुलाई 2007 को बलिया के सांसद के पद पर रहते हुए निधन।
गांव में मस्जिद बनाकर गांव वालों ने दी श्रद्धांजलि
पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के गांव इब्राहिमपट्टी में कुल दो घर ही मुसलमानों के थे। इसके बावजूद चंद्रशेखर चाहते थे कि गांव में छोटा ही सही एक मस्जिद का निर्माण हो जाए। इसके लिए वे अक्सर गांव के इस्लाम मास्टर साहब को कहते भी रहते थे। वे अक्सर कहते थे कि मास्टर साहब मस्जिद का निर्माण शुरू कराइए, जिस मदद की जरूरत होगी मैं कर दूंगा। मास्टर साहब टाल जाते थे, लेकिन चंद्रशेखर जी के निधन के बाद वे उनकी इच्छा का अनादर नहीं कर सके। इसके बाद गांव में एक मस्जिद के निर्माण का निर्णय लिया गया। निर्माण में परिवार से जुड़े लोगों ने भी आर्थिक सहायता दी और गांव में एक छोटा मस्जिद तैयार हो गया।
साभार-L.K. Singh, Sitabdiara