चंद्रशेखर पर किताब लिखना और वो भी उनकी जीवनी के तौर पर, हरिवंश जी के लिए निजी ऋण चुकाने का मामला था, क्योंकि अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत के साथ ही वो चंद्रशेखर से जुड़े और धर्मयुग के प्रतिनिधि के तौर पर उनसे मुलाकात की, उस दौर में जब संपूर्ण क्रांति के महानायक जेपी बीमारी के कारण मुंबई में थे। इसके बाद दोनों का जुड़ाव बढ़ता गया और आखिरकर जब चंद्रशेखर केंद्र में बिना कोई मंत्री बने सीधे देश के प्रधानमंत्री बने तो उनके अतिरिक्त सूचना सलाहकार की जिम्मेदारी भी हरिवंश जी ने निभाई। हरिवंश जी की पुस्तक Chandrasekhar : The last Icon of Ideological Politics. चंद्रशेखर के साथ हुए अन्याय की कहानी।
Book Review : BY L.K.Singh
पाठकों और इतिहास दोनों के लिए ऐसे कई अनसुने किस्सों का लिपिबद्ध होना आवश्यक था और हरिवंश जी ने ये काम करके देश और इतिहास दोनों की सेवा की है राज्यसभा के उपसभापति और वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश जी ने ये जीवनी अंग्रेज़ी में लिखी है, टाइटल है Chandrasekhar : The last Icon of Ideological Politics. ये सुखद संयोग ही था कि चंद्रशेखर पर लिखी गई किताब के लोकार्पण और विमोचन के लिए हरिवंश जी ने पार्लियामेंट लाइब्रेरी के सभागार का चुनाव किया था। चंद्रशेखर की आत्मा संसद में बसती थी और चार दशक से भी अधिक लंबे संसदीय जीवन में सदन के अंदर जो तमाम बातें उन्होंने रखी, उसमें विद्वता का जो पुट था, उसके मूल में था उनका गंभीर अध्ययन और जनता के सरोकारों से जुड़े रहने की उनकी प्रवृति, जिसका प्रतीक है, संसद भवन परिसर, जिसके दोनों सदनों में चंद्रशेखर ने अपनी अमिट छाप छोड़ी। संसदीय जीवन तो उनका शुरू हुआ 1962 में राज्यसभा से लेकिन आगे चलकर लोकसभा के वे सबसे मजबूत हस्ताक्षर बने। संयोग ही था कि उन पर लिखी गई किताब के विमोचन कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू और कार्यक्रम में शरीक थे लोकसभा के मौजूदा अध्यक्ष ओम बिरला। चंद्रशेखर के संसदीय जीवन का बड़ा हिस्सा विपक्ष की बेंच पर बैठे हुए बीता और जिस सदन से उन्होंने अपना संसदीय कैरियर शुरु किया, उस सदन में विपक्ष के नेता की भूमिका निभा रहे गुलाम नबी आजाद भी कार्यक्रम में मौजूद थे, जो साउथ एवेन्यू में चंद्रशेखर के पड़ोसी भी रहे हैं।
धर्मयुग से हुई थी चंद्रशेखर से मुलाकात
चंद्रशेखर पर किताब लिखना और वो भी उनकी जीवनी के तौर पर, हरिवंश जी के लिए निजी ऋण चुकाने का मामला था, क्योंकि अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत के साथ ही वो चंद्रशेखर से जुड़े और धर्मयुग के प्रतिनिधि के तौर पर उनसे मुलाकात की, उस दौर में जब संपूर्ण क्रांति के महानायक जेपी बीमारी के कारण मुंबई में थे। इसके बाद दोनों का जुड़ाव बढ़ता गया और आखिरकर जब चंद्रशेखर केंद्र में बिना कोई मंत्री बने सीधे देश के प्रधानमंत्री बने तो उनके अतिरिक्त सूचना सलाहकार की जिम्मेदारी भी हरिवंश जी ने निभाई। करीब से चंद्रशेखर की राजनीति और बतौर प्रधानमंत्री उनके कामकाज को अंदर से देखने का मौका मिला हरिवंश जी को, जिसकी छाप इस किताब पर है। एक ही जिले, बलिया से दोनों का ताल्लुक तो रहा ही।
इसलिए चंद्रशेखर के बारे में है यह किताब
चंद्रशेखर के बारे में किताब क्यों, वो भी तब जब उनका देहांत हुए बारह साल से भी अधिक का समय हो गया है, 2007 की आठ जुलाई को उनका देहांत हुआ था। हरिवंश जी ने अपनी किताब में इसका जिक्र भी किया है। उन्हें पीड़ा इस बात की रही है कि चंद्रशेखर का सही मूल्यांकन न तो पत्रकारों और साहित्यकारों की बड़ी जमात ने किया और न ही खुद दिल्ली में रहने वाली राजनीतिक विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों की दुनिया ने, जो इस देश में किसकी क्या छवि बने, किस तरह से किसको याद किया जाए, मोटे तौर पर तय करती रही है। लुटियंस की ये दुनिया ही है, जिसने चंद्रशेखर के साथ कभी न्याय नहीं किया। हरिवंश जी के मुताबिक, देश का एक ऐसा नेता, जो अपने क्रांतिकारी विचारों से समझौता करने को राजी न हो, उन विचारों की खातिर बार-बार पार्टियों को छोड़ने को मजबूर हो, जिसकी तैयारी केंद्र में बड़ा पद पाने की जगह जेल की सलाखों के अंदर आजीवन रहने की हो और अत्यंत कठिन हालात में देश की बागडोर को कुशलता से संभाल कर देश को संकट से बाहर निकालने की सार्थक कोशिश की हो, उसे अनैतिक, सत्तालोलुप और विध्वंसकारी के तौर पर पेश किया गया, उसकी विद्वता का लोहा मानने की जगह उसे गंवार कहा गया, उसकी निखालसता को उसकी कमजोरी के तौर पर पेश किया जाए, ये कहां तक उचित है। यही पीड़ा हरिवंश जी के लिए चंद्रशेखर की जीवनी अंग्रजी में लिखने का आधार बनी क्योंकि अंग्रेज़ी सोच वाले वर्ग के लिए चंद्रशेखर कभी आकर्षक नहीं रहे।
कुछ प्रधानमंत्रियों की जानबूझ कर खराब की गई छवि
खुद पीएम मोदी ने इस किताब पर अपनी बात रखते हुए जोर देकर ये कहा था कि जानबूझ कर एक वर्ग ने देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे कई बड़े नेताओं की खराब छवि बनाई, मसलन एक प्रधानमंत्री क्या पीते थे तो एक और प्रधानमंत्री हर बैठक में कैसे सो जाते थे। मोदी का इशारा मोरारजी देसाई की मूत्र चिकित्सा के लिए ज्यादा चर्चा होने या फिर एचडी देवेगौड़ा के सो जाने वाली बात का जमकर प्रचार किए जाने की तरफ थी। उनके बड़े कामों और उपलब्धियों की अनदेखी करके यह सब किया गया। मोदी का मानना था कि अगर लालबहादुर शास्त्री का देहांत ताशकंद में नहीं हो गया होता तो उन्हें भी भारत में एक वर्ग खलनायक बना देता। तब मोदी ने नेहरू-गांधी परिवार का नाम तो नहीं लिए थे लेकिन संकेत साफ थे कि किस तरह इस परिवार की जमकर तारीफ होती रही लेकिन बुद्धिजीवी वर्ग बाकी नेताओं के बारे में अनुदार रहा। मोदी का मानना आज भी है कि चंद्रशेखर भी इसी किस्म के अन्याय के शिकार रहे।
चंद्रशेखर के कई पहलुओं को छूती है यह पुस्तक
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण के दौरान इस बात को रखा था कि चंद्रशेखर सहित कई पूर्व प्रधानमंत्री ऐसे रहे, जिनके योगदान को स्वीकार ही नहीं किया जाता और न ही इसके बारे में बताया जाता है, इसलिए वो एक ऐसा संग्रहालय बनवाने जा रहे हैं, जहां इन तमाम लोगों के बारे में जानकारी हो। पीएम मोदी ने इस पर भी तंज किया कि आज की तारीख में कोई युवा नेता 10 किलोमीटर की पदयात्रा भी कर ले तो शोर हो जाता है, लेकिन चंद्रशेखर की कन्याकुमारी से राजघाट की दो हजार किलोमीटर से भी लंबी पदयात्रा की कोई चर्चा तक नहीं होती। युवा तुर्क के तौर पर मशहूर चंद्रशेखर के जीवन और व्यक्तित्व के ऐसे कई पहलुओं से परिचय कराती है ये किताब। हरिवंश की ये किताब बताती है कि चंद्रशेखर पॉलिटिक्स ऑफ अनटचेबिलिटी के खिलाफ थे, उनका इस बात में विश्वास था कि सार्वजनिक जीवन में संवाद कभी बंद नहीं होना चाहिए। राजनीतिक जीवन में कभी कोई अछूत नहीं हो सकता। वो सबसे संवाद करने के हिमायती थे। हरिवंश जी की इस किताब से जो ध्वनि निकलती है, और चंद्रशेखर की जो तस्वीर उभरती है, वो एक ऐसे राजनेता की तस्वीर है, जो अपने राजनीतिक दर्शन के मामले में बिना कोई समझौता किये बड़े से बड़े आदमी से सीधा टकराने के लिए तैयार दिखता है, जिसकी चिंता के केंद्र में इस देश के गरीब-गुरबे, किसान और आम आदमी रहा है और जिन विचारों और सोच में वक्त के थपेड़े खाकर भी कोई बदलाव नहीं आया। एक ऐसा शख्स, जो बलिया के एक गांव इब्राहिमपट्टी से निकल कर देश के समाज जीवन पर छा गया और करीब चार दशक तक इस देश की संसदीय राजनीति को सक्रिय तौर पर प्रभावित करता रहा, उसे दिशा देने का काम करता रहा। आर्यसमाज में आस्था रखने वाला ये व्यक्ति, अपनी बात को रखने के लिए राम चरित मानस की चौपाइयों और कबीर के दोहों से लेकर सुकरात और कामू को भी कोट करता था। ऐसा व्यक्ति जो भारतीय परंपरा में यकीन रखता था, जो बतौर पीएम पुणे में छात्रों को संबोधित करते हुए उन्हें भारतीय परंपरा में यकीन रखने की बात करता था, जो तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर और चाणक्य जैसे मनीषीयों के बार-बार पैदा होने की बात करता था न कि इस देश की मिट्टी से नोबेल लॉरेट पैदा होने को लेकर आतुर था।
राजनीति कभी व्यक्ति पूजा रूप में नहीं रही
हरिवंश जी का मानना है कि जिस चंद्रशेखर को इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों का एक बड़ा वर्ग अपने लिखे इतिहास के फुटनोट में भी जगह देने को तैयार नहीं होता, उस चंद्रशेखर के लिए राजनीति कभी व्यक्तिपूजा नहीं रही। चंद्रशेखर हमेशा पर्सनालिटी कल्ट के खिलाफ रहे, उनका कहना था कि सोच पर बात होनी चाहिए न कि शख्सियत पर। यही वजह थी कि जब भी उन्हें लगा कि उनकी समाजवादी सोच को कोई आगे नहीं बढ़ा रहा है तो वो अपने समय की सबसे बड़ी ताकतों से लोहा लेने से नहीं चूके। वो देश के खुद आठवें प्रधानमंत्री बने, लेकिन उसके पहले के तमाम प्रधानमंत्रियों को उन्होंने छोड़ा नहीं, अगर उन्हें लगा कि वो शख्स या फिर उसकी अगुआई वाली सरकार देशहित में काम नहीं कर रही है। ये सिलसिला नेहरू से शुरू होकर वीपी सिंह की आलोचना तक जारी रहा, मुद्दों को लेकर, उसके बाद भी ये सिलसिला बंद नहीं हुआ। राव और वाजपेयी से चंद्रशेखर के निजी संबंध अच्छे थे, लेकिन नीतियों को लेकर वो आलोचना से हिचके नहीं।
चंद्रशेखर के अच्छे इरादे पर नहीं कर सकते शक
बलिया की धरती क्रांतिकारियों की धरती रही है और इसी धरती में जन्मे चंद्रशेखर ने अपने विचारों से देश में क्रांति लाने का प्रयास किया। ये चंद्रशेखर ही थे, जिनके दबाव में बैंकों के राष्ट्रीयकरण से लेकर प्रीवी पर्स की समाप्ति तक हुई। हरिवंश जी के मुताबिक, क्रांतिकारी सोच रखने वाले चंद्रशेखर, जिन्हें युवा तुर्क के तौर पर लंबे समय तक संबोधित किया जाता रहा, उनके कई विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा हो सकती है, विवाद भी हो सकते हैं, आप असहमत भी हो सकते हैं, लेकिन उसके पीछे के अच्छे इरादे पर शक नहीं कर सकते। किसी बद इरादे से उन्होंने कोई काम नहीं किया. मौलिक शोध और जानकारी से पिरोई गई इस पुस्तक में हरिवंश जी बार बार इस बात पर जोर देते हैं। चंद्रशेखर की छवि जो मोटे तौर पर बनी, उनके संक्षिप्त प्रधानमंत्री काल के दौरान, देश का सोना गिरवी रखने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर, उस पर भी कई विस्फोटक जानकारियां हरिवंश जी ने अपनी इस पुस्तक में रखी है। किस तरह से एक आर्थिक संकट, जो 1982 से ही जन्म लेकर विकराल स्वरूप धारण कर रहा था, उसका समाधान करने की कोशिश चंद्रशेखर के सत्ता में आने के पहले किसी ने नहीं की और जैसे ही सत्ता की बागडोर उन्होंने संभाली, उनके माथे पर ठिकरा फोड़ दिया गया देश का सोना गिरवी रखने के तौर पर। इसके अलावा विकल्प क्या बचे थे चंद्रशेखर के सामने, ये बताने की कभी कोशिश नहीं की गई, उन लोगों पर सवाल नहीं खड़े किए गए, जो इस संकट के लिए जिम्मेदार थे, लेकिन चंद्रशेखर ने कभी सफाई देने की कोशिश नहीं की। सफाई देने की आदत नहीं थी उनकी। उनके बारे में तमाम बातें फैलाई गईं, खास तौर पर जिन आश्रमों को उन्होंने अपनी पैदल यात्रा के दौरान स्थापित किया। इसमें से ज्यादातर में कभी उन्होंने अपने परिवार के लोगों को जगह नहीं दी और मरने के ठीक पहले मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर गए कि सरकार इनका अधिग्रहण कर ले, ये बात भी हरिवंश की इस पुस्तक में बताई गई है। हरिवंश मूल तौर पर हिंदी के पत्रकार रहे हैं, लेकिन ये पुस्तक अंग्रेजी में है। हरिवंश जी को लगता है कि भारत की अंग्रेजीदां बुद्दिजीवी जमात ने ही सबसे अधिक चंद्रशेखर के साथ अन्याय किया है, जिनके लिए धोती-कुर्ता पहनने वाले गंवई चंद्रशेखर हमेशा अछूत के तौर पर ही रहे। उनका मानना है कि अगर ये जमात इस पुस्तक में लिखे कुछ पन्नों को भी ईमानदारी से पढ़ ले तो शायद उसे ग्लानि हो सकती है अपनी सोच पर या फिर जो अन्याय उन्होंने चंद्रशेखर के साथ किया।
पूरी तरह फियरलेस थे चंद्रशेखर
चंद्रशेखर के बारे में तमाम नई बातें और जानकारियां इस किताब में उभर कर आई हैं, मसलन कैसे उनकी पदयात्रा के पांच बड़े उद्देश्यों में से एक जल संरक्षण को लेकर लोगों को जागरूक करना था या किस तरह से पेड़ पौधे लगाने पर उनका जोर था, लेकिन एक महत्वपूर्ण बात, जो इस किताब में खुल कर आई है और जो चंद्रशेखर का जीवन दर्शन रही है, वो ये कि वो फियरलेस थे, डरना उनकी आदत में शुमार नहीं था। चाहे अपनी बात को लेकर सत्ता के शिखर पर बैठे लोगों से टकराने का मामला हो या फिर अपनी दोस्ती को लेकर, वो अटलबिहारी वाजपेयी को सार्वजनिक तौर पर गुरु कहते थे, हालांकि राजनीतिक दर्शन भिन्न होने के कारण आलोचना से परहेज भी नहीं करते थे। वो खुद मानते थे कि सार्वजनिक जीवन में आलोचना होनी चाहिए, लेकिन राजनीति के मायने उनके लिए विशेष थे। उनके लिए राजनीति सिर्फ दस फीसदी थी, नब्बे फीसदी मानवीय रिश्ता था, और जिन लोगों से उन्होंने रिश्ते बनाये, उसे सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया। अगर ऐसे रिश्तों या दोस्ती को लेकर उनपर कीचड़ भी उछले तो उन्होंने इसकी परवाह नहीं की। वो कहा करते थे कि बाकी लोगों की तरह रात के अंधेरे में वो हाजी मस्तान से नहीं मिलते, बल्कि दिन के उजाले में सबसे मिलते हैं। धनबाद के कोल माफिया रहे सुरजदेव सिंह से उनके सार्वजनिक संबंधों को लेकर हमेशा उनकी आलोचना होती रही, लेकिन उसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की।
अकेलेपन में जीने के आदी हो चले थे चंद्रशेखर
इस किताब के मुताबिक भारत की संसदीय परंपरा, जो चंद्रशेखर की उपस्थिति और उनके विचारों की वजह से समृद्ध हुई, वो चंद्रशेखर सार्वजनिक जीवन में छह दशक से भी अधिक समय तक रहने के बावजूद अकेलेपन में जीने के आदी थे, उन्हें कोई परेशानी नहीं थी। कई बार जब पुराने साथी साथ छोड़ जाते थे, उसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की, बल्कि अपनी खुद्दारी को बरकरार रखा। चिर विद्रोही के स्वभाव के अनुकूल ही था ये।
आपातकाल में भी नहीं स्वीकार किया प्रलोभन
जिस आपातकाल ने भारतीय राजनीति की दिशा को बदलने का काम किया, जिसकी आग में तपकर आज इस देश की राजनीति एक बड़ी करवट ले चुकी है, उस आपातकाल के दौरान तमाम कष्टों को सहने के बावजूद चंद्रशेखर झुके नहीं थे। बार-बार उनके पास समझौता करने के लिए इंदिरा गांधी की तरफ से दूत भेजे गये, लेकिन चाहे पटियाला की जेल में एकांतवास भुगत रहे हों या फिर दिल्ली के 3, साउथ एवेन्यू में हाउस अरेस्ट के दौरान, चंद्रशेखऱ ने कभी किसी प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया, अपनी बात पर अडिग रहे। जनता पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर देश को पहली गैर-कांग्रेसी सरकार दिलाने का काम उन्होंने जेल से बाहर निकलने के बाद किया, लेकिन जेलवास के दौरान जो डायरी उन्होंने लिखी, वो चंद्रशेखर की सोच, विचार और उनके व्यक्तित्व को जानने-समझने का महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
चुनाव हार कर चुकाई सिद्धांतवादी होने की कीमत
हरिवंश जी की इस किताब में ये भी दर्ज है कि अपने सिद्धांतों पर टिके रहने की एवज में बड़ा नुकसान उठाने के लिए भी चंद्रशेखर हमेशा तैयार रहे। 1984 के लोकसभा चुनाव हो रहे थे और बलिया का भिंडरावाला कहकर उनके खिलाफ कांग्रेस पहली बार निजी पीआर मशीनरी का इस्तेमाल कर माहौल बना रही थी, तो भी वो अपनी पोजिशन तब्दील करने को तैयार नहीं हुए। वो मानते थे कि ऑपरेशन ब्लू स्टार एक खराब कदम था और आखिरी दम तक वो अपनी इस बात पर कायम रहे। 1984 में चुनावी हार का सामना कर उन्होंने उसकी कीमत भी चुकाई, पता भी था कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की सहानुभूति लहर वाले उस चुनाव में, धारा के विरुद्ध तैरने की कोशिश करने का क्या परिणाम हो सकता है, लेकिन वो हिचके नहीं। ये किताब उसका भी जिक्र करती है कि शायद उन्हें समय मिलता तो वो अयोध्या और कश्मीर मसले के समाधान के लिए भी कई ठोस कदम उठा पाते, ऐसा भी उल्लेख है, लेकिन शायद ये बात उन लोगों को मंजूर नहीं थी, जो चंद्रशेखर को सफल होता नहीं देखना चाहते थे और चार महीने में ही समर्थन देने से लेकर समर्थन खींचने तक के लिए आमादा हो गए थे। इस किस्से को भी ये किताब मनोरंजक ढंग से सामने रखती है। चंद्रशेखर पर आरोप लगता रहा कि वो सत्तालोलुप थे, किसी भी तरह प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, लेकिन जिस तरह अपनी सरकार बचाने और इसके लिए गिड़गिड़ाने की जगह, इस्तीफा देने का फैसला किया, वो उनके अडिग व्यक्तित्व की कहानी कहता है। इस किताब में काफी विस्तार से लिखा गया है, शरद पवार के साथ उनकी चर्चा भी है, जो राजीव गांधी के प्रतिनिधि के तौर पर उऩके पास पहुंचे थे मनाने के लिए, इस्तीफा वापस लेने के लिए और चंद्रशेखर ने उनको कैसे जवाब दिया कि दिन में तीन बार मैं अपने विचार नहीं बदलता। पाठकों और इतिहास दोनों के लिए ऐसे कई अनसुने किस्सों का लिपिबद्द होना आवश्यक था और हरिवंश जी ने ये काम करके देश और इतिहास दोनों की सेवा की है। भविष्य में भारतीय राजनीति पर शोध करने वाले विद्वानों को तो मदद मिलेगी ही, युवा पीढ़ी को इससे भारतीय राजनीति में चंद्रशेखर के योगदान और उनकी सोच के बारे में भी पता चल सकेगा।