जिस समय भारत ने तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार की, उस समय हमने इन बातों को नजरअंदाज किया। हम चाउ-एन-लाई को कह सकते थे कि जो पुरानी संधिया हैं, उन पर आप हस्ताक्षर कर दीजिए। चंद्रशेखर की दृष्टि में यहीं भारत से चूक हुई। हरिवंश की पुस्तक-भारत-चीन संघर्ष और चंद्रशेखर का संक्षिप्त अंश-भाग-तीन
एस पांडेय
बलिया डेस्क : जवाहरलाल नेहरु ने उस समय ऐसी असावधानी क्यों बरती। यह असावधानी केवल सामरिक तैयारी के सिलसिले में ही नहीं थी, अनेक मामलों में थी। चंद्रशेखर ने लिखा है कि जहां तक मुझे याद है, सीमा विवाद पर चीन, ब्रिटिश इंडिया और तिब्बत के प्रतिनिधियों के बीच समझौते के लिए कई बैठकें हुईं। हर बार जो संधि हुई, चीन ने उस पर एतराज किया। इस तरह संधि केवल तिब्बत और ब्रिटिश इंडिया के बीच ही हुई थी। जिस समय भारत ने तिब्बत पर चीन की संप्रभुता स्वीकार की, उस समय हमने इन बातों को नजरअंदाज किया।
हम चाउ-एन-लाई को कह सकते थे कि जो पुरानी संधिया हैं, उन पर आप हस्ताक्षर कर दीजिए। चंद्रशेखर की दृष्टि में यहीं भारत से चूक हुई। बाद में चीन के लोगों का तर्क रहा कि जब आप मानते हैं कि तिब्बत हमारा हिस्सा है तो तिब्बत से ब्रिटिश इंडिया की जितनी संधियां हैं, उनका कोई मतलब नहीं है। हालांकि, चंद्रशेखर यह भी मानते थे कि उसके लिए प्रधानमंत्री को अकेले जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं है। पंडित जी ने तो हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा दिया था। वे जहां जनतांत्रिक संस्थाओं को मर्यादा देना चाहते थे, वहीं अपने व्यक्तित्व को एक अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बनाने के लिए हमेशा सजग रहते थे। चंद्रशेखर मानते थे कि चीन युद्ध के समय हमारी कोई तैयारी नहीं थी, चूंकि हमारे रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन थे, इसलिए सारा दोष उनका बताया गया। फिर चंद्रशेखर टिप्पणी करते हैं कि कांग्रेस की परंपरा रही है कि उसका नेता कुछ भी करे, उसका दोष नहीं है।
उसके लिए वह किसी दूसरे आदमी को तलाशते हैं, जिसे बलि का बकरा बनाया जा सके। बड़े बुरे तरीके से कृष्ण मेनन का त्यागपत्र हुआ। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि कृष्ण मेनन की आवाज कभी संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका जैसी ताकतें सुनकर थर्राती थीं, लेकिन रक्षा मंत्री पद से हटने के बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में उनके पास कोई बैठने वाला भी नहीं था। यह हमारा समाज है। यह हमारी राजनीति है। जब दिल्ली में यह खबर मिली कि चीन की फौज तेजपुर तक पहुंच गई है, तब चंद्रशेखर नए-नए सांसद बने थे। उन्होंने बताया है कि किसी से सलाह किए बिना वे गुवाहाटी चले गए। वहां से टैक्सी लेकर तेजपुर की ओर। वहां बिपिनपाल दास मिले, जो प्रिंसिपल थे। बाद में भारत सरकार के मंत्री भी हुए। चंद्रशेखर ने कहा है कि उन दिनों मैं काफी चिंतित था कि ऐसी स्थिति क्यों आई। मैं सीमा पर जाकर स्थिति खुद देखना चाहता था, तब देश की हालत बहुत बुरी थी। ऐसा लगता था कि कहीं राजसत्ता का प्रताप-इकबाल ही नहीं है।
अमेरिका का रुख हमेशा पाकिस्तान की ओर रहा
चंद्रशेखर की अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बारे में समझ बड़ी साफ थी। उन्होंने चीन युद्ध के संदर्भ में उल्लेख भी किया है कि उस वक्त अमेरिका का जो रुख था, वह भारत के पक्ष में कतई नहीं माना जा सकता। अमेरिका का रुख हमेशा पाकिस्तान की ओर रहा । एंग्लो-अमेरिकन धुरी भारत की सच्ची हितैषी के रूप में नहीं रही । पाकिस्तान बनाने में एक नैतिक जिम्मेदारी कहीं न कहीं अमेरिकियों की भी रही होगी। चंद्रशेखर मानते थे यद्यपि, चीन की सेना वापस चली गई थी, पर लोगों का मन आतंक, भय और असमर्थता के एहसास से भर गया था। उस समय संसद में इस बात पर बहस हो रही थी। हमारी पार्टी के नेता आर.पी. सिन्हा जी ने पंडित जी से कुछ सवाल पूछा। पंडित जी कभी-कभी लोगों का बड़ा मजाक बनाते थे। उनका भी मजाक बना दिया। सारे सदन में हंसी हो गई। वे बेचारे चुप बैठ गए। मुझे कुछ अजीब लगा। मैं ने उठकर अंग्रेजी में कहा कि प्रधानमंत्री जी क्या युद्ध के नेता की तरह बरताव करेंगे या पुरानी गलतफहमियों में रहेंगे। क्या अब भी हमलोगों ने काफी सबक नहीं सीखा है। उस समय जाकिर हुसैन साहब अध्यक्ष थे। एक बार पहले कैरों के मामले में जवाहरलाल जी से मेरी बहस हो गई थी। जब मैं पंडित जी से कोई सवाल पूछना चाहता था तो जाकिर साहब जरा आंखें फेर लेते थे। समाप्त