हर गांव में मिल जाएंगे ऐसे लोग जो गांव के छोटे विद्यालय से पढ़कर ही बने बड़े अधिकारी। सच्ची निष्ठा से दायित्व निर्वहन नहीं होने के चलते ही बदनाम हो रहा यह गरिमामयी शिक्षक का पद। संस्कारयुक्त शिक्षा से ही होगा सामाजिक बदलाव, लायक बन सकती छात्रों की जिंदगी।
Ballia News Desk : गुरु-शिष्य परंपरा भारत की संस्कृति का एक अहम और पवित्र हिस्सा है। जीवन में माता-पिता का स्थान कभी कोई नहीं ले सकता, लेकिन हम यह भी नहीं भूल सकते कि जीने का असली कला हमें शिक्षक ही सिखाते हैं। देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन शिक्षकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए दिन है। शिक्षक दिवस हमें महान दार्शनिक और शिक्षक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान की याद दिलाता है। इस दिवस पर शिक्षक, शिक्षा और छात्रों के बीच के माहौल पर गौर करें तो जो वर्तमान तस्वीर हमारे सामने है, वह बहुत अच्छी नहीं है। इस बदले माहौल बहुत से शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन सच्ची निष्ठा से नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते पूरी शिक्षा व्यवस्था बदनाम हो रही है। शिक्षकों पर भी कई तरह के सवाल उठ रहे हैं, छात्र-छात्राओं के अंदर से संस्कारों का लोप हो रहा है। फिर भी समाज के लोग बच्चों के बेहतर जीवन की उम्मीद शिक्षकों से ही कर रहे हैं। समाज का गरीब वर्ग बड़ी उम्मीद से अपने बच्चों का प्रवेश सरकारी विद्यालय में कराता है। मन ही मन सपना बुनता है कि सरकारी विद्यालय में पढ़कर भी उनका बच्चा उनकी उम्मीदों को पूरा करेगा। ऐसे में शिक्षकों का यह धर्म कि वह अपने बच्चों को उस लायक जरूर बनाए कि उसकी जिंदगी खुशहाल हो जाए। ऐसा पहले होता भी था। जनपद के हर गांव में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो सरकारी विद्यालय में पढ़कर ही बडे़-बड़े अधिकारी बने हैं। इसलिए आज के शिक्षकों में यह गुण तो हाेना चाहिए कि वे खुद के दम पर पढ़ने वाले बच्चों की ऐसी फौज खड़ा करे जिसमें संस्कारयुक्त शिक्षा का समावेश हो। शिक्षकों के बारे में डॉ राधाकृष्णन का भी मानना था कि शिक्षक ही एक सभ्य और प्रगतिशील समाज की नींव रखते हैं। छात्रों को प्रबुद्ध नागरिक बनाते हैं, इसीलिए पूरा समाज उनकी प्रशंसा करता है।
बदल सकती शिक्षा की तस्वीर
आज के परिवेश में शिक्षा का बाजारीकरण अपने चरम पर पहुंच गया है। शहर हो या गांव, हर जगह दो तरह के स्कूल हैं। एक सरकारी सुविधाविहीन स्कूल तो वहीं दूसरा सुविधाओं से संपंन निजी स्कूल। निजी विद्यालयों में महंगे फीस होने के बावजूद भी एडमीशन की लंबी कतार है। वहीं सरकारी में सबकुछ फ्री का होने के बावजूद बच्चों का प्रवेश उस अनुपात में नहीं हो रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है, मोटी तनख्वाह लेने वाले शिक्षक यदि बच्चों को सच्ची निष्ठा से पढ़ाएं तो सरकारी विद्यालयों की भी तस्वीर बदल सकती है। जनपद में कई परिषदीय विद्यालय इसके उदाहरण हैं, जहां के शिक्षकों के बदौलत वहां भारी संख्या में बच्चे दिखाई देते हैं, लेकिन सर्वत्र की स्थिति ऐसी नहीं है। हालात तो ये हैं कि कक्षा आठ में पढ़ने वाला छात्र कक्षा तीन और चार के सवाल को हल नहीं कर पाता। यही स्थिति उच्च शिक्षा में भी देखने को मिल रही है। नई शिक्षा नीति के तहत अब शिक्षा के स्तर को सुधारने की बातें जरूर हो रही है, लेकिन सभी तरह के इंतजाम तभी सार्थक हैं जब शिक्षक अपने दायित्वों का निर्वहन सच्ची निष्ठा से करेंगे।